महामन्त्र महाराज भीमदेव की रुग्णशय्या पर मन्त्रणा-सभा जुड़ी। सभा में केवल तीन पुरुष थे: ': बालुकाराय, दामो महता और महाराज भीमदेव। महाराज भीमदेव ने पूछा- “तो देवपट्टन का पतन हो गया, गुजरात की मर्यादा भंग हो गई?" “गुजरात की मर्यादा भंग नहीं होगी महाराज, जब तक बाणबली भीमदेव खङ्ग- हस्त हैं,” महता दामोदर ने स्थिर स्वर से कहा। “सर्वज्ञ गंग की कुछ सूचना मिली है?" "नहीं महाराज।” “देवता की रक्षा हुई?" "कुछ कहा नहीं जा सकता।" "राव रायधन?" "वे सम्भवतः खेत रहे।' “और कमा लाखाणी?" “गंदावा दुर्ग हमने उन्हें ही सौंपा था। उन्होंने हमें सब युद्ध-साधन समेत विदा कर दिया था। दुर्ग में कुल सौ योद्धा भी नहीं थे। पर दुर्ग दृढ़ था, कौन जाने, उनपर क्या बीती, सूचना अभी नहीं मिली है।" "दुर्ग में क्या यथेष्ट अन्न-जल था?" "नहीं।" "तब तो...” महाराज के नेत्र सजल हो गए। उन्होंने कहा, "राजवैद्य कहाँ हैं?" "उपस्थित हैं महाराज।" “उन्हें अभी बुलाओ।" राजवैद्य ने आकर महाराज को जुहार कहा। महाराज ने कहा, “वैद्यराज, मेरे घाव कितनी देर में भर जाएँगे।" अन्नदाता, अभी एक मास न अश्व की पीठ ले सकते हैं, न तलवार ग्रहण कर सकते हैं।" “यह तो असम्भव है वैद्यराज।" “असम्भव तो महाराज के प्राणों का इस क्षत-विक्षत शरीर में शेष रह जाना था।" वैद्यराज ने आँखों में आँसू भरकर कहा। "वह तो सम्भव हुआ वैद्यराज।” महाराज ने सूखी हँसी हँसकर कहा। "महाराज के पुण्य-प्रताप और देव-सहाय से महाराज।" "तो वैद्यराज, प्रत्येक मूल्य पर यह भी सम्भव करो कि मैं एक सप्ताह में शस्त्र ग्रहण कर सकू।" 'अपराध क्षमा हो अन्नदाता, मैं किसी तरह श्रीमानों के प्राणों पर खतरा नहीं आने 66
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