गया?" "तो गंदावा दुर्ग का भी पतन चौला ने सिर झुका लिया। महाराज जल माँगा। चौला ने चाँदी की झारी से जल महाराज के मुँह में डाला। कुछ देर महाराज चुप रहे, फिर उन्होंने एक प्रकार से आर्तनाद- सा करते हुए कहा- "तो गुजरात की तलवार टूट चुकी? कौन-कौन खेत रहे, कौन-कौन बचे?" “सब ब्यौरा सेनापति शायद बता सकें, उन्हें बुलाऊँ?" “अभी नहीं!" उन्होंने फिर शोभना को देखकर कहा, “तुम कौन हो?" “मैं शोभना हूँ, देवी की चिरकिंकरी।" महाराज ने चौला की ओर देखा। चौला ने साभिप्राय दृष्टि से शोभना की ओर देखा,शोभना धीरे से उठकर बाहर चली गई। कक्ष में एकान्त हो गया। महाराज एकटक बहुत देर तक दीपक के धीमे पीले प्रकाश में चौला के पीले मुँह को देखते रहे। फिर आहिस्ता से उसे खींचकर अपने वक्ष पर डाल लिया। पुष्प के ढेर की भाँति चौला महाराज के वक्ष पर गिरकर भारी-भारी साँस लेने लगी। जीवन और मृत्यु के मध्यस्थ उस संयोग- वियोग के उद्वेग से उसका वक्ष लुहार की धौंकनी के समान उठने-बैठने लगा। दोनों ही आकुल-व्याकुल हृदय परस्पर आलिंगित धड़क रहे थे, और उनके साक्षी थे, दोनों के प्रेम- पिपासु सूखे, विरह-विदग्ध सम्पुटित प्रचुम्बित ओष्ठ।
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