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बिंध-बिंधकर और लुढ़क-लुढ़कर अमीर के सम्मुख ढेर हो रहे थे। अमीर की घुड़सवार सेना भी बेकार प्रमाणित हो रही थी। क्योंकि वहाँ घोड़ा दौड़ने का स्थान ही नहीं था। क्रोध और खीझ से पागल होकर अमीर दुर्ग के बाहर बसे छोटे लोगों, खेडूतों की बस्ती पर टूट पड़ा। स्त्री-बच्चों और निरीह बूढ़ों तक को उसने काट डाला। अभी एक औरत के सामने सिर झुकाकर इस खुदा के बन्दे ने जो वचन दिया था उसे भूल गया। पर यह हत्याकाण्ड करके भी उसे कुछ लाभ नहीं हुआ। उसे न दुर्ग को छोड़ते बनता था, न आक्रमण करते। वह सोच ही न पा रहा था कि क्या करे। भीमदेव-जैसे शत्रु को वह अछूता नहीं छोड़ सकता था, और दुर्ग भंग करना उसके बूते से बाहर की बात थी। निरुपाय उसने दुर्ग पर घेरा डाल दिया और स्थिर होकर सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए। फिर कुछ सोच-समझकर उसने फतह मुहम्मद को दूत बनाकर किलेदार के पास सुलह की शर्ते लेकर भेजा। सुलह की शर्ते सिर्फ यही थीं कि यदि किलेदार महाराज भीमदेव को उनके सुपुर्द कर दे, तो वह किला छोड़ सकता है। फतह मुहम्मद सफेद झण्डा फहराता हुआ किले की पौर पर पहुँचा। पौर की बुर्ज पर चढ़कर वृद्ध कमा लाखाणी ने अमीर का सुलह का सन्देश सुना। सुनकर हँसा, हँसकर कहा, “अमीर नामदार से हमारा सलाम कहना, और कहना, अभी नहीं, परन्तु उपयुक्त काल में मैं महाराज को लेकर अमीर की सेवा में हाज़िर हूँगा। अभी महाराज भीमदेव बीमार हैं, अमीर की अभ्यर्थना के योग्य नहीं।" सन्देश में कितना व्यंग और कितना तथ्य था, यह अमीर नहीं समझ सका। उसने दुर्ग में घुसने योग्य कोई गुप्त मार्ग हो, तो उसे ढूंढ निकालने, या कोई दरार चट्टानों में बनाने, तथा किसी तरह दुर्ग में घुसने की कोई-न-कोई तदबीर निकालने को, चारों ओर अपने जासूस रवाना कर दिए।