. क्षण-भर अमीर भाव-विमोहित-सा मुग्ध खड़ा रहा। कुछ देर बाद उसने सतेज स्वर में कहा, “यहाँ कौन है?" “मैं और मेरा देवता", गंग ने शान्त स्वर में कहा। फिर बिना ही अमीर की ओर मुँह फेरे उन्होंने कहा, "वत्स महमूद, कुछ क्षण ठहर जा।" वे अपनी अर्चना सम्पन्न करने लगे, मानो कुछ हुआ ही न हो। महमूद और उसके दोनों साथी इस अप्रतिम देव और उस देव के सेवापुरुष को अनिमेष देखते खड़े रहे। शीघ्र ही सर्वज्ञ ने अर्चना-विधि समाप्त की। भूमि में गिरकर देवता को प्रणाम किया। फिर बिलकुल ज्योतिर्लिंग से सटकर बैठ गए। बैठकर वैसी ही शान्त-स्निग्ध वाणी से उन्होंने कहा, “अब तू अपना काम कर महमूद।" उन्होंने नेत्र बन्द कर लिए। देखते-ही-देखते उनका शरीर निस्पन्द हो गया। अमीर ने साथियों से दृष्टि-विनिमय किया। फिर वह फतह मुहम्मद के हाथ से गुर्ज लेकर आगे ज्योतिर्लिंग के निकट जाकर उसने कहा, “मैं खुदा का बन्दा महमूद वही कहूँगा जो मुझे कहना चाहिए। अय बुजुर्ग, दूर हट जा और बुत-शिकन को कुफ्र तोड़ने दे।" परन्तु गंग सर्वज्ञ ने और भी ज्योतिर्लिंग को अपने अंक में लपेट लिया। उन्होंने आँख खोलकर करुण दृष्टि से महमूद की ओर देखा, और धीर स्वर से कहा, “पहले सेवक और पीछे देवता।" उन्होंने ज्योतिर्लिंग पर अपना हिमधौत सिर रख दिया। अमीर ने गुर्ज का भरपूर वार किया। सर्वज्ञ का भेजा फट गया। और उनके गर्म रक्त से ज्योतिर्लिंग लाल हो गया। उनके मुँह से ध्वनि निकली, “ओ३म्”, और प्राण-पखेरू ब्रह्मरन्ध्र को भेदकर उड़ गए। अमीर ने गुर्ज का दूसरा वार और फिर तीसरा वार किया। ज्योतिर्लिंग के तीन टुकड़े हो गए। दूज का क्षीण चन्द्र आकाश में चढ़ रहा था। इधर-उधर तारे टिमटिमा रहे थे। बढ़ा।
पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/२६२
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।