आत्म-यज्ञ CG कक्ष में आकर सर्वज्ञ ने देखा, गंगा जल्दी-जल्दी चिता बनाने में जुटी है। उसने पास-पास दो चिताएँ बनाई थीं। वह फुर्ती से जलने योग्य जो सामान वहाँ जुटा सकती थी, जुटा रही थी। सर्वज्ञ ने देखा तो कहा, “यह क्या?" “चौलुक्य के लिए अग्नि-रथ।” “और दूसरी?- “गंगा के लिए” वह हँस दी। परन्तु गंग रो दिए। उनका वीतराग हृदय जैसे बालक की भाँति अधीर हो गया। गंगा ने उनके अत्यन्त निकट आकर उनके वक्ष पर अपना सिर रखकर कहा, “आप भी रोते हैं?" “गंगे, हिमालय की हिम धवल चट्टानें भी पिघलती हैं, परन्तु अब तो तुझे जाना ही होगा। आ, मैं तुझे विदा कर दूं।" उन्होंने उसके मस्तक पर हाथ फेरा। और बड़ी देर तक उसे वक्ष से लगाए निस्पन्द खड़े रहे। इसी समय उनके एक अन्तरंग शिष्य ने आकर कहा, “देव, अन्तर्कोट गिर गया, अब अन्तर्कोट पर शत्रु धावा कर रहे हैं। कुछ ही क्षण में वे रत्नमण्डप तक पहुँच जाएँगे।" "एक क्षण ठहर पुत्र, तू जा, और कृष्णस्वामी से कह कि रत्न-कोष की समुचित सुरक्षा-व्यवस्था करें। गैं गंगा को मोक्ष देकर अभी आता हूँ।” शिष्य मस्तक नवाकर चला गया। सर्वज्ञ ने कहा, “आ गंगी।" उन्होंने अपने हाथ से उसका केश-विन्यास किया। अंग- प्रत्यंग चन्दन-चर्चित किया, फिर हाथ पकड़ कर चिता पर बैठाया, कुछ क्षण मौन रह, कम्पित वाणी से कहा, “जा कल्याणी, कैलासवासिनी हो।" गंगा ने सर्वज्ञ की चरण-रज को मस्तक पर चढ़ाया, और आखें बन्द करके ध्यानस्थ बैठ गई। सर्वज्ञ ने घी और कपूर के बड़े-बड़े डले चिता पर रख अग्नि स्थापना कर दी।" दोनों चिताएँ शीघ्र ही धधकने लगीं। धुआँ कक्ष में फैल गया। किन्तु वह दृश्य देखने सर्वज्ञ वहाँ रुके नहीं, तेज़ी से गर्भगृह की ओर लपक चले। शत्रु रत्न-मण्डप में घुस आए थे। सबसे आगे अमीर महम्मूद था। उसकी हरी पगड़ी पर पन्ने का तुर्रा झलक रहा था। और लाल दाढ़ी हवा में फहरा रही थी। उसके हाथ में नंगी तलवार थी। उसके एक पाश्र्व में एक भारी गुर्ज हाथ में लिए फतह मुहम्मद था, और दूसरे पाश्र्व में श्वेत श्मश्रुधारी प्रसिद्ध अरबी विद्वान् अलबरूनी था। उसके हाथ में एक लम्बी तलवार थी। अमीर ने संकेत से सबको आगे बढ़ने से रोक दिया। तीनों व्यक्ति आगे बढ़े। रत्न- मण्डप के मणिजटित खम्भों पर अस्तंगत सूर्य की रंगीन किरणे झिलमिला रही थीं। उस अप्रतिम मणिमय प्रासाद को देखकर अमीर आश्चर्य से जड़ हो गया। सहमते हुए, वह गर्भगृह में घुसा। उसने देखा घृत के दीपक अपनी पीली आभा और सुगन्ध बिखेर रहे थे। और नितान्त शान्त वातावरण में गंग सर्वज्ञ स्वर्ण-थाल हाथ में लिए देवाधिदेव सोमनाथ की आरती उतार रहे थे।
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