धर्मानुशासन रत्न-मण्डम की पौर पर दामोदर महता उसी प्रकार अचल-भाव से निस्पंद खड़े रहे। वे सोच रहे थे, दासी-पुत्र के शौर्य-पराक्रम, विनय और उच्चाशयता की बात। कुछ ही क्षणों में उन्हें प्रतीत हो गया कि सिंहद्वार का पतन हो गया और अमीर की सेना अन्तरायण में धंसी चली आ रही है। क्या करना चाहिए, इसका कुछ भी निर्णय वह कर्मठ राजपुरुष इस समय न कर सका। वह देख रहा था, आज उसी के नेत्रों के सम्मुख गुजरात के उस विश्रुत देव-स्थान के भंग होने का क्षण आ लगा। कैसे वह उसे देखे, कैसे वह उसे रोके? उसके हाथ में अमीर की दी हुई तलवार थी, क्या वह उसके नाम पर अमीर से याचना करे, उस अमीर से, जिसे उसने एक बार प्राण-दान दिया था। नहीं, नहीं। उसने वह तलवार म्यान में कर ली और गुर्जर तलवार सूंत ली। उस साहसी पुरुष ने इस पुण्य पर्व पर प्राणोत्सर्ग का निर्णय कर लिया। उसने अपने ही आपसे कहा, 'नहीं-नहीं, इस पौर पर मेरे रहते म्लेच्छ का पांव नहीं पड़ेगा।' शोर और अल्लाहो-अकबर का नाद निकट आ रहा था। शस्त्रों की झनझनाहट और मरनेवालों के आर्तनाद बढ़ रहे थे। परन्तु इस स्थान पर एक भी पुरुष न था। सामने गर्द उड़ती आ रही थी। और कुछ ही क्षणों में शत्रु इस भूमि की रजकण को रक्त-रंजित करने आ पहुँचेंगे, यह वह जानता था। दामो महता और एक पौर नीचे उतरे। इसी समय किसी ने पीछे से उन्हें छुआ। उलटकर देखा, तो गंग सर्वज्ञ। वही शान्त मुद्रा, वही अचल धैर्य। सर्वज्ञ ने करुण नेत्रों से गुजरात के मन्त्री को देखा और स्थिर स्वर से कहा, “आ पुत्र!" उस वाचाल राजपुरुष के मुँह से एक शब्द भी न निकला। उसने आँखों में आँसू भरकर गंग की गम्भीर मुद्रा देखी और चुपचाप बालक की भाँति उनके पीछे-पीछे हो लिया। गर्भगृह में जाकर सर्वज्ञ ने गर्भगृह के द्वार बन्द कर लिए। फिर ज्योतिर्लिंग के ठीक पीछे जा एक गुप्त द्वार उन्होंने खोला और कुछ तक अन्धकारपूर्ण सुरंग में चलकर एक छोटे कक्ष में जा पहुँचे। कक्ष में महाराज भीमदेव और चौलुक्य के शरीर भूमि में पड़े थे। बालुकाराय शोक-संतप्त चुपचाप खड़े थे। नंगी तलवार उनके हाथ में थी, उनकी तलवार और शरीर पर लगा रक्त सूख गया था। पास ही में गंगा स्तब्ध-निश्चल खड़ी थी। गंग ने शांत वाणी से कहा, “पुत्र, चौलुक्य तो कैलास-वासी हुए। परन्तु महाराज सेनापति केवल मूर्छित हैं। उनकी रक्षा का भार मैं तुम्हें सौंपता हूँ। पुत्र, गुजरात के गौरव की रक्षा करने को ही भीमदेव जीवित रहें, ऐसा ही देव आदेश है। अब समय कम और काम बहुत है, एक-एक क्षण मूल्यावान् है। आओ मेरे साथ! यह कहकर सर्वज्ञ ने अनायास ही महाराज भीमदेव का शरीर अपने बलिष्ठ हाथों से कन्धे पर उठा लिया। बालक ने बाधा देकर कहा, “गुरुदेव, यह क्या? यदि ऐसा ही है तो वह भार मुझे दीजिए।"
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