समर्पित तलवार इसी समय जूनागढ़-द्वार पर तुमुल कोलाहल हुआ। महाराज महासेनापति का ध्यान उधर गया। मामला गम्भीर होता जा रहा था। कमा लाखाणी की तनिक भी आन न मानकर, शत्रु कोट में घुस आए थे। हज़ारों कछुए धातु की बड़ी-बड़ी ढालों में सिर छिपाए, निसैनियाँ पीठ पर लादे तैरते हुए कोट तक आ रहे थे। पीछे बलूची घुड़सवार उनपर बाणों की छांह कर रहे थे। उनकी अगल-बगल अमीर के हाथी दीवार बनाकर चल रहे थे। देखते- ही-देखते सैकड़ों सीढ़ियाँ कोट पर लग गईं और जीवट के तुर्क लम्बी-लम्बी दाढ़ी के बीच बड़ी-बड़ी तलवारों को दाँतों में पकड़ सीढ़ियों पर चढ़ने लगे। कोट के राजपूतों ने ऊपर से तीर, पत्थर और गर्म तेल उलीचना आरम्भ किया। वृद्ध कमा लाखाणी अकथ पराक्रम दिखा रहे थे। उनके पाँच हज़ार तलवार और बर्खे के धनी योद्धाओं की लोथों से कोट और तट पट गया था। अब उनकी आशा अपने जहाज़ों पर थी जो तेज़ी से बढ़े चले आ रहे थे। जहाज़ों के बीच में तीन सौ नावें थीं जिनमें से प्रत्येक पर इक्कीस-इक्कीस धनुर्धारी थे। मार के भीतर जाते ही जहाज़ों और नौकाओं से बाण-वर्षा होने लगी। नौकाएँ आगे बढ़कर अमीर के तैरते हुए हाथी-घोड़ों और पदातिकों का कचूमर निकालने लगीं। इस पर अमीर ने अपने सम्पूर्ण मस्त हाथियों को कोट में ठेल दिया। घुड़सवार बलूची भी पानी में पैठ गए। इस काली बला से उलझ-उलझकर नावें उलटने लगीं। अमीर ने जहाज़ों में आग लगाने को अग्नि-बाण छोड़ने आरम्भ किए। अब मुख्य युद्ध जल में हो रहा था। देखते-ही-देखते एक जहाज में आग लग गई। शीघ्र ही वह जहाज़ धांय-धांय करके जलने लगा। इसी समय वीरवर दद्दा चौलुक्य ने द्वारिका-दुर्ग को अधिकृत किया। द्वारिका के दुर्ग से हर-हर महादेव का निनाद ऊँचा हुआ और खाई में आग की लपटों को लहराता देख, शत्रुओं ने हर्ष से उल्लसित हो अल्लाहो- अकबर का नाद किया। हर्ष और भय दोनों के नाद आपस में टकरा गए। महाराज महासेनापति भीमदेव मुग्ध नेत्रों से दद्दा का असह विक्रम देख रहे थे। इस दुर्धर्ष कोलाहुल से उनका ध्यान जूनागढ़-द्वार की तरफ गया। वे अश्व को और ऊँचाई पर ले जाकर वहाँ की गतिविधि ध्यान से देखने लगे। देखते-देखते उनकी भृकुटी में बल पड़ गए। उन्होंने इधर-उधर चिन्ता-ग्रस्त नेत्रों से देखा। इसी समय रक्त से सराबोर, अंग से झर-झर खून झरते हुए दद्दा हांफते हुए आए और अपनी तलवार महाराज महासेनापति के सम्मुख बढ़ाते हुए उन्होंने वीर-दर्प से कहा, “अपने पाप का प्रायश्चित्त और अपराध का परिहार मैंने कर लिया है, महासेनापति, देखिए वह द्वार अब हमारे अधिकार में है, दो घड़ी पूरी हुईं। अब महाराज, यह मेरी तलवार और यह मेरा प्राण।” महाराज भीमदेव ने तुरन्त घोड़े से कूदकर दद्दा को छाती से लगा लिया। प्रेम के आँसू बहाते हुए उन्होंने कहा, "चौलुक्य, क्षत्रिय धर्म बड़ा कठोर है! अभी यह तलवार अपने वीर हाथों में मज़बूती से पकड़े रहो। उधर देखो, जूनागढ़-द्वार पर दबाव बढ़ रहा है। कमा लाखाणी संकट में हैं, जाओ वीर, यह मेरा अश्व है, अपना जौहर दिखाओ, जिससे चौलुक्यों का रक्त उज्ज्वल
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