राज-बन्दी आनन्द को तुरन्त ही अमीर के सम्मुख पेश किया गया। आनन्द अमीर के तेज, प्रताप और प्रदीप्त व्यक्तित्व से डगमगा गया। उसने तलवार की मैत्री की भी याद दिलाई, फतह मुहम्मद के प्रति मैत्री-भाव भी प्रकट किया, परन्तु इससे उसका अनिष्ट ही हुआ। अमीर जैसे राजनीति के महापण्डित को यह समझते देर न लगी कि सुरंग के रास्ते एकाएक नये अनपेक्षित व्यक्ति का आना युक्तिसंगत नहीं है। उसने फतह मुहम्मद और सिद्धेश्वर दोनों से परामर्श करके विश्वस्त रूप से उसे शत्रु मानकर कड़े पहरे में बन्दी कर लिया। परन्तु उसके खान-पान और रहन-सहन की अच्छी व्यवस्था कर दी। सिद्धेश्वर ने स्पष्ट कह दिया था कि यह हमारे भेद को जान गया है। यदि इसे छोड़ दिया गया तो इसका घातक परिणाम होगा। और हमारी सारी योजना ही निष्फल हो जाएगी। बन्दी आनन्द की खूब खातिर-तवाज़े की गई। कोई काम की बात उससे उगलवाने के पूरे प्रयत्न किए गए। पहले उसने पागल होने का स्वांग भरा, पर वह भी निभा नहीं, अन्त में वह शान्त और मौन हो बैठा! बहुत कहने-सुनने पर भी फतह मुहम्मद से उसे नहीं मिलने दिया गया। आनन्द अमीर के शिविर में बन्दी है, यह बात अत्यन्त गोपनीय रक्खी गई। अन्तत: सब बातों पर खूब आगा-पीछा सोचकर आनन्द स्थिर हो गया। वह ऊपर से प्रसन्न और निश्चिन्त रहने लगा। छूटने की उसने कोई चेष्टा नहीं की। एक-दो बार अमीर ने उससे बात भी की, कुछ मामले की बात निकलवाने की बड़ी चेष्टा की, परन्तु उसने हँसकर टाल दिया। कहा, “अभी तो मैं अमीर नामदार की सेवा में हूँ ही, समय आने पर अमीर के लाभ की बात निवेदन करूँगा।" अमीर ने और भी यत्न से इस गूढ़ पुरुष पर पहरे- चौकी की व्यवस्था कर दी। रुद्रभद्र से अमीर की और एक बार मुलाकात हुई। सिद्धेश्वर का दूतत्व तो जारी ही रहा। अमीर अब यह भेद भी जान गया कि अघोर वन का वह पिशाचराज और कोई नहीं, वही धूर्त रुद्रभद्र है। अमीर उसे महालय की सारी सम्पदा सौंपकर उसे महालय का अधिष्ठाता स्वीकार कर ले, इस शर्त पर उसने अमीर को सुरंग की राह महालय में ले जाने का वचन दिया। बीच में बहुत से आदान-प्रदान हुए और अन्त में सब योजना स्थिर कर ली गई। योजना अत्यन्त गुप्त रखी गई। अमीर अपना शिविर और पीछे हटा ले गया। और योजना की पूर्ति में लग गया। दामोदर महता को आनन्द के इस प्रकार एकाएक गायब हो जाने का बहुत आश्चर्य हुआ। और जब पूरा दिन और रात्रि भी बीत गई, तो उनका आश्चर्य चिन्ता में बदल गया। एक विशेष बात यह भी चिन्ता की थी कि अमीर ने कोट पर आक्रमण करने की चेष्टा नहीं की। उल्टे वह अपना लश्कर पीछे हटा ले गया। राजपूत योद्धा हथियार बांधे अपने-अपने मोर्चों पर मुस्तैदी से डटे हुए आक्रमण की प्रतीक्षा करते रहे। सदैव ही हिन्दू रण-नीति यही रही है, आगे बढ़कर शत्रु का दलन करने की नहीं। जब दूसरा भी दिन यों ही बीत गया और
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