करते हुए गीली मिट्टी का एक पुतला बनाया। दद्दा ने कहा, “नहीं नहीं, मैं आज्ञाधीन हूँ, चलिए।" "तो आ”, पुतले को वहीं मिट्टी में दबाकर वह द्वारिका -द्वार की ओर चल दिया। दद्दा चौकी छोड़ नीचे उतरे। द्वारिका-द्वार पर आकर रुद्रभद्र ने कहा, “खोल दे द्वार।" दद्दा ने रुद्रभद्र को साष्टांग दण्डवत् करके कहा, “नहीं-नहीं, गुरुदेव, महाराज की आज्ञा नहीं है। ऐसा मैं करूँगा तो मेरा सिर धड़ पर नहीं रहेगा।" “मैं कहता हूँ, चाबी दे।" "नहीं, गुरुदेव, नहीं।" “तेरे पुत्र को महाकाल भक्षण कर लेगा रे!” उसने मिट्टी का पुतला दिखला कर “सो कर ले।" "तेरा नाश होगा।" "सौ बार हो। मैं चला" दद्दा मुट्ठी में कसकर तलवार पकड़े पीछे को भागे। परन्तु रुद्रभद्र ने दौड़कर एक भरपूर चीमटे का हाथ कस कर उनके सिर पर दे मारा। दद्दा घूम कर गिर पड़े। रुद्रभद्र ने उनके वस्त्रों से चाबी निकाल द्वार की खिड़की खोली। प्रेत की भाँति सिद्धेश्वर कहीं से आकर खिड़की की राह बाहर हो गया। खिड़की बन्द कर और चाबी को यत्न से अपनी जटा में रख रुद्रभद्र तेज़ी से एक ओर को चल दिया। कहा।"
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