'" 66 "सिद्धेश्वर से मिलने।" “सिध्देश्वर कौन है?" 'अमीर और रुद्रभद्र का मध्यदूत।" "ठीक कह सकते हो?" “जी, मैंने स्वयं उनकी बात सुनी है, निश्चय ही कुछ गहरी चालें चली जा रही हैं।" “तो तुम इस निर्णय पर पहुँच चुके हो कि रुद्रभद्र सहस्राग्नि तप का जो ढोंग कर रहा है, उसका कुछ और ही उद्देश्य है?" “सन्देह तो मेरा यही है, अब आज आप स्वयं देख लें।" “क्या वह योद्धा है?" "खूब तरुण है।" “पर शायद बुद्धिमान नहीं!" “कम-से-कम सावधान नहीं है, पर साहसी है।" "तो आनन्द, तू उसका विश्वास-भाजन बन।” “इसी के लिए तो मैं यह चीज़ लाया हूँ" '-आनन्द ने हँसकर कहा। “क्या?" "द्वारिका द्वार की चाबी।" “किन्तु...।" "नकली है, इसे सिर्फ दिखाऊँगा, दूंगा नहीं। उसी से काम हो जाएगा।” आनन्द हँसा। इसी समय पानी में कुछ शब्द हुआ। आनन्द ने कहा, "वह शायद आया है, आप इसी वृक्ष की आड़ में छिप जाएँ, उसका कौशल देखिए, किस युक्ति से आता है कि दद्दा का चौकी-पहरा ही व्यर्थ जाता है।" “ऐसा वह क्यों न करे, यहीं का खेला-खाया है, सब घर-घाट जानता है, दद्दा की आँखों में धूल झोंकना उसके लिए कठिन क्या है!” "क्या दद्दा को सावधान कर दिया जाए?" "तब तो शिकार हाथ से निकल जाएगा, किसी से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है, देखो वह छाया-मूर्ति।" "वही है, आप उस वृक्ष की ओट में हो जाएँ।” “ठीक है, देवसेन, तुम अवसर पाकर पानी में पैठना, और अन्तत: सावधानी से उसका पीछा करना। तथा सूर्योदय होने से पहले ही मुझे उसका सब विवरण देना।" देवसेन क्षणभर में दृष्टि से ओझल हो गया। दामो महता पीछे हटकर वृक्ष की ओट में छिप गए। आनन्द छाया में छिपता हुआ तट की ओर बढ़ा। तट पर एक बहुत बड़ा प्राचीन वट वृक्ष था, उसकी अनगिनत जटाएँ जल तक लटकी हुई थीं। ऐसी ही एक जटा को पकड़कर कमर तक जल में घुसकर उसने एक शब्द किया, शब्द सुनकर जल से एक सिर बाहर निकाला। आनन्द ने कहा, "निर्भय रहो मित्र, और निकट आ जाओ, कोई खटका नहीं है।" छाया-मूर्ति ने पास आकर कहा, “दम्म मैं ले आया हूँ, यह लो!” उसने सोने से भरी एक भारी थैली आनन्द के हाथ में दे दी, और इधर-उधर सिर हिलाकर बालों का जल
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