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दामो महता की चौकी प्रथम दिन के युद्ध में विफल-मनोरथ होकर अमीर के लौट जाने पर हर्ष और उमंग की जो बाढ़ राजपूत सैनिकों में आई, उसे अपनी आँखों देखते, शाबाशी देते तथा दूसरे दिन के युद्ध के लिए ठीक-ठीक व्यवस्था करते, जत्थेदारों को आदेश देते महाराज महा सेनापति भीमदेव बहुत रात गए तक सारे मोर्चों पर घूमते रहे। आज के युद्ध में हिन्दू सैन्य की कुछ भी हानि नहीं हुई थी। एक भी आदमी व्यापक रूप से आहत नहीं हुआ था। एक भी मोर्चा भंग नहीं हुआ था। प्रथम बाण से जो अमीर की पगड़ी गिरा दी गई थी, उसकी हँस-हँसकर चर्चा हो रही थी। सिपाही अपने-अपने कौशल की डींगें मार रहे थे। बहुत रात बीतने पर महाराज भीमदेव अपने शयन-कक्ष में गए। वहाँ उन्हें सूचना मिली कि सर्वज्ञ अभी तक समाधिस्थ ही हैं। सब सेनापति और मण्डलेश्वर एक-एक करके महासेनापति से विदा हुए। गंगा ने आकर महासेनापति को देव-प्रसाद दिया और कहा, सर्वज्ञ तथा देवता के कल भी दर्शन नहीं होंगे। धीरे-धीरे सारा सोमपट्टन नींद में ऊँघने लगा। दिशाओं में शान्ति एवं नीरवता छा गई। केवल एक व्यक्ति जो अब भी विश्राम नहीं कर पाया, वह था दामो महता। वह चुपचाप सारे मोर्चों को बारीकी से देखता हुआ, और बीच-बीच में अमीर की छावनी में जलती और धूकती हुई हज़ारों मशालों को देख रहा था। उसी के पीछे चुपचाप उसके दो चर उसी की भाँति छाया-मूर्ति बने चल रहे थे। द्वारिका-द्वार पर आकर महता खड़ा हो गया। उसने बड़े ध्यान से द्वार के सब मोर्चों को देखा। फिर उसने पीछे मुँह कर मन्द स्वर से कहा, “यहाँ किसकी चौकी है आनन्द?" “दद्दा सोलंकी की।" "हाँ, हाँ, परन्तु इस समय दद्दा कहाँ हैं? दीख नहीं रहे।" "उधर बुर्ज पर वे बैठते हैं, बैठे तो हैं सामने।" "ठीक है, किन्तु तुम कहते हो, वह युवक इसी घाट पर आता है।" “जी।" “दद्दा ने क्या उसे एक बार भी नहीं देखा?" "मालूम तो ऐसा ही होता है। मैंने दद्दा से पूछा था कि चौकी-पहरा सब ठीक है, तो उन्होंने हँसकर यही कहा, “सब ठीक-ठाक है भाया, जब तक यह तलवार है।" "हाँ, आँ, उन्हें तलवार ही का तो भरोसा है।, अरे आनन्द, ये योद्धा तलवार ही को काम में लेना जानते हैं, बुद्धि को नहीं, लेकिन तूने कहा था कि वह आज भी आएगा।" “जी, हाँ।" "कब?" "दो पहर रात-बीते।" "इसमें तो अब देर नहीं है, लेकिन तूने तो कहा था, वह कृष्णस्वामी की लड़की से प्रेम करता है, वह तो अब है नहीं, फिर अब क्यों आता है?"