जय शंकर पौष की पूर्णिमा की प्रभात-बेला में ज्यों ही उषा की प्रथम किरण फूटी, मन्दिर के शिखर पर आरूढ़ प्रहरी ने शंख फूंका। क्षणभर ही में चारों ओर शंख और भेरी-नाद से दिशाएँ गूंज उठीं। डंकों और नक्कारों की धमक से प्रभास गरज उठा। सहस्रों सैनिकों ने जयघोष किया-“जय शंकर!" महासेनापति युवराज भीमदेव हड़बड़ाकर उठ बैठे। पाश्र्वद ने घबराए हुए आकर कहा, “आक्रमण हुआ, अन्नदाता।" "तो मेरे शस्त्र और वस्त्र ला” भीमदेव तुरन्त ही सज्जित होकर कोट पर चढ़ गए। वहाँ गंग सर्वज्ञ, जूनागढ़ के राव, लखा कामानी, केसर मकवाणा और दामोदर महता आदि सावन्त सचिव उपस्थित थे। बहुत लोग भाग-दौड़ रहे थे। सैनिक कंगूरों पर चढ़ रहे थे। धनुर्धर धनुष ताने आज्ञा की प्रतीक्षा में थे। घुड़सवार भाले-बरदार प्रांगणों में बद्ध-परिकर खड़े थे। दूर नदी के किनारे-किनारे अर्धोदित सूर्य के चरण-तल में धूल-गर्दे के बादल उड़ रहे थे। और उसमें से काली-काली मूतियाँ प्रकट होती-सी दीख रही थीं पहले दो-चार और पीछे शत-सहस्र। ये अमीर के अश्वारोही थे। झपटते हुए बालुकाराय ने बुर्ज में प्रवेश किया। उन्होंने महाराज भीमदेव के हाथ में धनुष-बाण देकर कहा, “देखिए तो महाराज, यह प्रथम बाण है, इसी से आप शत्रु का इस धर्मनगरी में सत्कार कीजिए।" "अभी ठहरो बालुक” महासेनापति ने सुदूर उड़ती हुई धूल पर दृष्टि गड़ाकर कहा। सबने देखा, एक दुर्धर्ष योद्धा काले अरबी घोड़े पर सवार हो सेना से बाहर आया। उसके साथ कुछ और चुने हुए सवार थे। सबके सुनहरी तारकशी के वस्त्र उस प्रभात-कालीन सूर्य की पीत किरणों में चमक रहे थे। जो सबसे आगे था, वह पगड़ी पर एक मूल्यवान पन्ने का तुर्रा बाँधे था। उसकी दाढ़ी लाल रंग की थी। वह क्षणभर शांत भाव से खड़ा महालय की फहराती ध्वजा को देखता रहा, फिर उसने साथी से धनुष लेकर एक बाण संधान किया। तीर खाई में आकर गिरा। बालुकराव ने कहा, "महाराज, अब आपकी बारी है," बाणबली ने यही गज़नी का अमीर है?" महता ने आगे आकर कहा, “यही है महाराज!” बाणबली ने बारह टंक की अनी बाण में लगाकर धनुष को कान तक खींचा। और फिर बाण छोड़ दिया। बाण तुर्रे-सहित अमीर की हरी पगड़ी को लेकर भूमि पर जा गिरा। सैनिक गर्जना कर उठे, “जय शंकर! जय सोमनाथ! हर हर महादेव, बम्भोला।' वह लाल दाढ़ी वाला सरदार घोड़े को घुमाकर तीर की भांति पीछे को फिरा। और एक चक्कर काटकर फिर सेना के मध्य भाग में आ खड़ा हुआ। उसने संकेत किया और तीरों की एक बौछार मन्दिर पर पड़ी। साथ ही अल्लाहो-अकबर का गगनभेदी नाद भी उठा। परन्तु उसके उत्तर में इधर से कोई उत्तर नहीं दिया गया। तुर्क सवार आगे बढ़कर खाई के कहा, "क्या
पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/२१६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।