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"क्या सचमुच गज़नी का अमीर अपने सरदारों की इतनी इज़्ज़त करता है कि वह तुम जैसे एक अदना दरबारी सरदार के दोस्त का स्वागत करे, जो एकदम अजनबी है?" "दोस्तमन्, अमीर बहादुरों का कद्रदान है, और तुम देखोगे कि वह उस आदमी को उठकर गले से लगाएगा, जिसमें बहादुरी और बड़प्पन दोनों ही बहुत हैं।" “खैर, यह मैं देख लूँगा।" महता चुप हो गए। कुछ देर दोनों चलते चले गए। धीरे- धीरे मार्ग के घुमाव के उस ओर घने जंगल में अमीर की छावनी दृष्टिगोचर हुई। मीलों तक छावनी का फैलाव था। हाथी, घोड़े, पैदल, सिपाही, नौकर-चाकर सब अपना-अपना काम कर रहे थे। प्रभावशाली तुर्क ने निरन्तर एक विशेष संकेत-शब्द करते हुए छावनी में प्रविष्ट होना प्रारम्भ किया, और वे दोनों निर्विघ्न छावनी की मरुस्थली में पहुँच गए। महता उस विराट सैन्य की व्यवस्था और प्रचण्ड सत्ता को देखते हुए तुर्क सवार के साथ-साथ चलते चले गए। अब उनमें कभी-कभी बहुत धीरे-धीरे बातचीत होती थी। तुर्क सवार कुछ महत्त्वपूर्ण बात कहना चाह रहा था। परन्तु महता चुपचाप नेत्रों से जो देख रहा था, उस पर विवेचन कर रहा था। इसलिए वह बातचीत में अन्यमनस्क हो रहा था। इसी समय वे एक लाल रंग के बहुमूल्य खेमे के सम्मुख जा खड़े हुए। उसके सम्मुख कोई पचास तीरंदाज़ पहरा लगा रहे थे। उन्होंने अदब से तुर्क सरदार का अभिनन्दन किया। तुर्क फुर्ती से घोड़े से कूद पड़ा। उसने संकेत से महता को घोड़े से उतरने के लिए कहा और बताया वह अमीर से निवेदन करके उसे अभी भीतर बुला लेगा। वह भीतर चला गया। दो हब्शी गुलामों ने आगे बढ़कर अश्व थाम लिए, सैनिक घूर-घूरकर महता को देखने लगे। महता अपने विचारों में डूव-उतरा रहे थे। परन्तु उन्हें अधिक सोचने-विचारने का अवसर नहीं मिला। एक सम्भ्रान्त दरबारी पुरुष ने अत्यन्त आदर-मान से उसका अभिवादन किया और अमीर के खेमे में चलने का विनम्र अनुरोध किया। महता धड़कते कलेजे से अमीर के खेमे में घुस गए। प्रथम यों वह वहाँ की महार्घता देख, सकते की हालत में रह गए। खेमे में जो सजावट थी, वह अकल्पनीय थी। उसमें कीमती कालीन बिछे थे। खेमे के मध्यभाग में मसनद के निकट अमीर सुलतान महमूद प्रसन्न-वदन खड़ा था। उसने कहा, “खुश-आमदन दोस्तमन, मेरे पास मसनद पर बैठकर मुझे ममनून करो, और बताओ कि गज़नी का सुलतान अपने दोस्त को किस तरह खुश कर सकता है?" दामोदर महता ने दरबारी कायदे से सुलतान का अभिवादन किया और कहा, “आलीजाह, यद्यपि यह गुलाम आपको पहचानता न था, फिर भी कुछ भान हो गया था कि उसे, हो न हो, हुजूर की ही दोस्ती का रुतबा मिला है। हम लोग दुर्भाग्य से दो अलग- अलग उद्देश्यों में सन्नद्ध हैं, परन्तु नामवर अमीर दामोदर महता को जब चाहेंगे, दोस्त की तरह काम में ले सकेंगे।" अमीर ने कहा, “दोस्त्मन, मैं चाहता हूँ कि तुम्हें निहाल कर दूँ, मगर मैं देखता हूँ कि तुम वह बशर हो जिसे शहनशाह ममनून नहीं कर सकते।" "फिर भी नामवर सुलतान नाजुक मौकों पर जब चाहें, दामोदर महता को अपना