कहा, "महाराज, बिना कुछ खाए-पिए मेरी सांढ़नी ने पाँच बार इस मरुस्थली को पार किया है। वह मरु समुद्र का जहाज़ है। वह चालीस दिन तक बिना खाए-पिए धावा कर सकती है। परन्तु एक बात है।" "वह क्या?" “यदि अमीर पीछे मरुस्थली की ओर न लौटे।" “सम्भवतः वह राजस्थान की ओर मुँह न कर सकेगा।" “किन्तु अर्बुदाचल के मार्ग जाए तो?" “उसकी चिन्ता नहीं। विमलदेव शाह तीस हज़ार गुर्जर-सैन्य सहित उसका मार्ग रोकने को आबू में सन्नद्ध हैं। फिर काका दुर्लभदेव की गज-सैन्य भी है, और अभी तो यहाँ हम हैं। यदि भगवान् सोमनाथ की ऐसी ही इच्छा हुई, तो सुलतान के भाग्य का अन्तिम निबटारा या तो तुम्हारी मरुस्थली में होगा या अर्बुदाचल में। मरुस्थल सज्जन का और अर्बुदाचल मेरा।" "तो महाराज, मरुस्थल की ओर यदि दुर्भाग्य अमीर को ले गया, तो वहाँ से एक भी म्लेच्छ जीता न लौटेगा!" “अब रहा सामन्त। सामन्त को मैं यहाँ न रहने दूंगा। यह इसी समय घोघागढ़ जाए।" "मेरा अपराध महाराज?” सामन्त ने भरे कण्ठ से कहा। "अपराध नहीं भाई, घोघाबापा का वंश जीवित रखना होगा। घोघाबापा के चौरासी पुत्र-पौत्रों में एक तुम और सज्जन बस दो बचे हो। सज्जन को तो मैं उत्सर्ग के मार्ग पर भेज रहा हूँ। पर सामन्त, तुम्हें अपने वंश की रक्षा करनी होगी।” महासेनापति भीमदेव की वाणी कम्पित हो गई। आँखें मेंह बरसाने लगीं। “तो सामन्त, महाराज की बात रख।” सज्जन ने आँखों में आँसू भरकर कहा। सामन्त ने अवरुद्ध कण्ठ से कहा, “बापू, मैं यहाँ धर्मयुद्ध से विमुख होकर चला जाऊँ तो मेरा क्षत्रिय धर्म जाए।" “ऐसा नहीं सामन्त।" भीमदेव ने कहा। “मैं नहीं जाऊँगा महाराज। मैं सेनापति की आज्ञा को अस्वीकार करता हूँ, मुझे अनुशासन भंग करने का दण्ड दीजिए।" महाराज भीमदेव ने हँसकर स्नेह से उस तरुण को छाती से लगा लिया। दामोदर महता ने कहा, “महाराज, सामन्त सिंह जी के लिए एक महत्त्वपूर्ण कार्य है।" "क्या?" "उन्हें खम्भात की रक्षा का भार दीजिए। अन्ततः खम्भात का सामुद्रिक महत्त्व सबसे अधिक बढ़ता जाएगा।" "ठीक है, तो सामन्त, तुम्हें खम्भात सौंपता हूँ। वहाँ गुर्जरेश्वर श्री वल्लभ देव है, सुश्री चौला हैं, पाटन के हज़ारों आबाल-वृद्ध हैं; गुजरात की सभी प्रतिष्ठा और सम्पदा इस समय खम्भात में है, इन सबका रक्षक मैं तुम्हें बनाता हूँ। वीर!" सामन्त ने सिर झुकाकर कहा, “जैसी महाराज की आज्ञा!" अन्य आवश्यक व्यवस्था के बाद यह युद्ध-मन्त्रणा भंग हुई। बीस सहस्र सुरक्षित
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