भीमदेव ने कहा, “तब ऐसा ही हो। अपने धनुर्धारियों को तुम सम्भालो। अब हमें कुल तीन मोर्चे स्थापित करने हैं। प्रथम होगा मुख्य तोरण-उसका रक्षक कौन होगा?" जूनागढ़ के राव ने अपनी तलवार ऊँची करके कहा, “यह लोहा। इसके रहते दैत्य महालय के मुख्य तोरण पर पदाघात न कर सकेगा।" "ठीक है। आप दो सहस्र घुड़सवार और दस सहस्र सैन्य सहित मुख्य तोरण की रक्षा करेंगे।" “अब दूसरा मोर्चा जूनागढ़-द्वार सागर-तट है, उसे कौन सम्भालेगा?" “मैं” कमा लाखाणी ने मेघ-गर्जन की भाँति कहा, “सागर तट पर मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।" "अच्छा, तो तट पर इस समय तीन सौ नावें हैं तथा छह भारवाहक और तीन शस्त्रसज्जित जहाज़ हैं। शत्रु के पास जल-युद्ध का कुछ भी सरंजाम नहीं है। ये आपके अधिकार में हुए। आपको अश्वारोही सेना की तो दरकार ही नहीं। पाँच हज़ार तलवार और बई के धनी योद्धा और बालुकाराय के तीरन्दाज़ भी आपके साथ रहेंगे।" "तो महाराज, तट भाग अभंग है, सो अभंग रहेगा।" “अब रहा नगर-द्वार" भीमदेव ने कुछ चिन्तित होकर कहा। "उसके लिए केवल पाँच सौ अश्वारोही मुझे दे दीजिए।” मकवाणा ने हँसकर कहा। भीमदेव हँस पड़े। उन्होंने कहा, “पाँच सौ नहीं, दो हज़ार अश्वारोही और पाँच हजार पदातिक, साथ ही दामो महता भी।" "तब तो अधिकस्याधिकं फलम्।' सज्जनसिंह चौहान ने कहा, “किन्तु मुझे क्या काम सौंपा जाता है?" भीमदेव ने गम्भीर मुद्रा से कहा, "हाँ, अब आपकी बारी है, सज्जनसिंह जी। आपको मैं सबसे कठिन कार्य सौंप रहा हूँ।" “यही मेरी अभिलाषा भी है।" "तो देखिए, यदि दैव-दुर्विपाक से हमें दलित करके यहाँ से सुलतान वापस लौटे तो मरुस्थली में ही उसको समाधि तुम देना। यही कार्य मैं तुम्हारे सुपुर्द करता हूँ। प्रातःस्मरणीय घोघाबापा का तर्पण तुम्हें ही करना होगा वीरवर! और अब तो तुम्हीं मरुस्थली के रक्षक भी हो।" “ऐसा ही होगा महाराज, मैं प्रतिज्ञा करता हूँ।" “तब कहो, तुम्हें कितने सैनिक चाहिए? यह देख लो, हमारे पास योद्धाओं की बहुत कमी है।" “यह मैं देख रहा हूँ महाराज!” "तुम्हें कम से कम योद्धा दूंगा" “ठीक है महाराज!” “कहो, फिर कितने?" सज्जनसिंह ने फीकी हँसी हँसकर कहा, “एक भी नहीं महाराज, वह सामने नीम की छाया में मेरी साँढ़नी बँधी है। बस, वह और मैं दो ही यथेष्ट हैं।" सज्जनसिंह की बात सुनकर सब कोई आश्चर्य से उसका मुँह ताकने लगे। सज्जन ने
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