यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दैत्य आया गज़नी का दैत्य नल वावणी होता हुआ प्रभास की सीमा में धंसा चला आ रहा है। अन्ततः इसकी सूचना भीमदेव को मिली। भीमदेव ने तत्काल ही एक युद्ध-समिति की बैठक की। इस समिति में भीमदेव चालुक्य, सेनापति बालुकाराय, जूनागढ़ के राव, केसर मकवाणा, राय रत्नादित्य, कमा लाखाणी, दद्दा सोलंकी, सामन्त सिंह और सज्जनिसंह आदि प्रमुख भट सेनानायक उपस्थित थे। प्रश्न था कि क्या अमीर को प्रभास तक आने का अवसर दिया जाए, या उसे राह ही में अटकाया जाए? यदि राह में अटकाया जाता है तो दुर्गाधिष्ठान का महत्त्व जाता रहता है, बल बिखर जाता है, अतः सर्वसम्मति से यही निर्णय हुआ कि अमीर को आगे बढ़ने दिया जाए तथा उसके वापस जीवित लौटने के सब मार्ग बन्द कर दिए जाएँ। मकवाणा ने वीर दर्प से मूंछों पर ताव देकर कहा, “मैं इस तलवार से उसके दो खण्ड करूँ तो मेरा नाम मकवाणा। इसी धर्मक्षेत्र में राक्षस की मुक्ति हो।" जूनागढ़ के राव ने कहा, “जब तक शरीर में प्राण हैं, हम लोहा बजाएँगे। आगे जैसी शंकर की इच्छा।" सज्जन चौहान ने कहा, “अब मेरा तो जीवन ही उस दैत्य का सर्वनाश करने के लिए है।" और भी बहुतों ने बहुत बातें कहीं। सभी ने वीर-दर्प से हुंकृतियाँ भरीं। सबके अन्त में जलद गम्भीर स्वर में भीमदेव ने कहा, “यह तो हुआ। अब यह कहो, अमीर का बल कैसा है, उसकी सैन्य कितनी है, उसका संगठन कैसा है?" “उसके पास चालीस हज़ार मंजे हुए घुड़सवार हैं, इसके अतिरिक्त दो हज़ार सांढ़नियाँ और पाँच सौ हाथी हैं। बारह हज़ार अचूक तीरन्दाज़ हैं जिनके तीर में पाँच टंक की अनी पड़ती है महाराज।" भीमदेव ने कहा, “तो पहले तीरन्दाज़ों ही को लो। हमारे पास कुल सात हज़ार तीरन्दाज हैं। वे सब उतने होशियार और अचूक तो नहीं हैं, परन्तु हमारे पास गढ़ हैं, खाई हैं, दुर्ग हैं, तथा भरपूर रसद और रण के साधन हैं। सबसे प्रथम उन्हीं की मुठभेड़ हो। इन सात हज़ार धनुर्धरों का अधिकार मैं लेता हूँ।” किन्तु बालुकाराय ने बाधा देकर कहा, “नहीं महाराज, उनका अधिकार मैं लेता हूँ। आप सम्पूर्ण धर्म-सैन्य के नेता और सेनापति हैं। आपको सम्मुख युद्ध में आने का कोई काम नहीं है। महाराज बाणबली प्रसिद्ध हैं, परन्तु एक ही बाण से उसका हृदय विदीर्ण न करूँ तो बालुकाराय नाम न धराऊँ।” भीमदेव ने हँसकर कहा, “बालुक, तुम्हारे हस्त-लाघव और शौर्य पर तो मैं ईर्ष्या करता हूँ, परन्तु तुम्हारे अधीन नगर-रक्षा भी है, इसी से..." परन्तु बालुक ने बात काटकर कहा, “नगर अब कहाँ है महाराज, यह प्रभास तो अब सैनिक-सन्निवेश है। फिर भी तो मैं स्वेच्छा से दायित्व ले रहा हूँ। आपको मैं किसी भी हालत में कोई जोखिम सिर न लेने दूंगा।" ,