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सहस्राग्नि-सन्निधान परन्तु रुद्रभद्र ने धर्म-सेनापति की आन नहीं मानी। वह एक सहस्र धधकती धूनियों के बीच वहीं कूटस्थ मुद्रा में बैठा रहा। उसका विशाल कृष्णकाय शरीर, लाल भस्म भूषित जटाएँ, मद्य से लाल-चोट नेत्र, भयानक काली सघन भौंहें, मोटे निरन्तर हिलते होंठ और बीच-बीच में ‘ला विनाश' का चीत्कार, यह सब मिलकर दर्शकों के मन पर एक ऐसा बीभत्स, रौद्र और भयानक प्रभाव छोड़ते थे कि जिसका वर्णन ही दुर्लभ है। उसे न सेना का भय था, न शस्त्रों का, न उसे गुरु के आदेश की परवाह थी, न सेनापति की। त्रिपुरसुन्दरी के मन्दिर के बाहर विशाल मैदान में उसने अब सहस्त्राग्नि तपना प्रारम्भ किया था। उसके साथ उसके तीन सहस्र संगी-साथी अघोरी, वामपन्थी और कलमुँहे भी वैसी ही मायाविनी आकृति बनाए उन धधकती हुई एक हज़ार धूनियों के चारों ओर मिथुन-मुद्रा में बैठे मन्त्र- जप कर रहे थे। उनके सैकड़ों चेले-चांटे उन जलती सहस्र महाचिताओं में निरन्तर वृक्ष- वनस्पति काट-काट कर ईंधन झोंक रहे थे। केवल यही नहीं, नगर में जो कुछ भी जहाँ कहीं जलने-योग्य अच्छा-बुरा पदार्थ मिल जाता, वे उसी को उठा लाकर धूनियों में झोंक रहे थे। वे लोग कोई भी विधि-निषेध नहीं सुनते थे, किसी से नहीं डरते थे, रोकने पर लड़ने-मरने को उद्यत हो जाते थे, वे छूटते ही घातक आक्रमण करते थे। नगर में नागरिक तो कम ही रह गए थे, अधिकांश बाहर से आए हुए सैनिक थे, वे उनके इस व्यवहार से बड़े आतंकित हो रहे थे। उनसे उनके सम्मुख विरोध करते ही न बन पड़ता था। अंधविश्वास ने उन्हें कायर बना दिया था। उन्हें देखते ही बड़े-बड़े वीर भाग खड़े होते थे, निकट आते ही ये अघोरपंथी छूटते ही अपने विकराल चीमटों का प्रहार ऐसे वेग से करते थे कि अच्छे-से-अच्छे बलिष्ठ पुरुष की भी खोपड़ी फट जाती। अपने नेता रुद्रभद्र के साथ वे-हूँ फट, ह्रीं, क्लीं का उच्चारण करते, उनके होंठ निरन्तर हिलते रहते और बीच- बीच में वे सब सहस्र-सहस्र कंठ से ‘ला विनाश', 'ला विनाश' चिल्लाते। महा मेधावी प्रतापवान सेनापति बालुकाराय इन दुर्भट हठीले अघोरियों के सम्मुख निरुपाय हो गए। उन्होंने महासेनापति भीमदेव और दामोदर महता से परामर्श किया। बालुकाराय ने कहा, “क्या उन पर बल-प्रयोग किया जाए?" “यह शायद ठीक न होगा” भीमदेव ने कहा, “किन्तु क्यों न सर्वज्ञ से निवेदन किया जाए?" "सर्वज्ञ अन्तःस्थ हैं। उनसे मिलना अशक्य है। बात करना भी सम्भव नहीं।" "बहुत विचार-परामर्श के बाद दामोदर महता ने कहा, “उन्हें मुझ पर छोड़ दीजिए। मैं उन सबसे निपट लूँगा। ये मूर्ख हमारा कुछ भी न बिगाड़ पाएँगे। और इनका आप ही विनाश हो जाएगा।" यही बात तय रही। दामोदर महता ने उनकी गतिविधि की देख-रेख अपने पट्ट- शिष्य गजानन के सुपुर्द की। उसकी अधीनता में पचास सशस्र सैनिक भी दे दिए। उसे