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कृष्णस्वामी ने फिर साहस किया। समझाते हुए बोले, “शोभना की माँ, महाराज महासेनापति की आज्ञा है। वह तो माननी ही पड़ेगी।" रमा ने खीझ कर कहा, “क्यों माननी पड़ेगी, मैंने महासेनापति से ब्याह नहीं किया, न उनकी दबैल हूँ। महासेनापति मेरे सामने तो आएँ। कौन से शास्त्र वचन से वह पत्नी को पति के चरणों से दूर करते हैं? घरनी को घर से निकालते हैं? सुने तो! बड़े आए तीसमारखाँ।" कृष्णस्वामी ने खीझ कर कहा, “तो तुम नहीं जाओगी?" "नहीं, नहीं जाऊँगी, नहीं, जाऊँगी, नहीं जाऊँगी-जहाँ तुम वहाँ मैं।" वह रोती- रोती कृष्णस्वामी के पैरों से लिपट गई। रोती-रोती बोली, “इस बुढ़ापे में अधर्म में मत खसीटो, इन चरणों से दूर न करो, दया करो, दया करो!" बालुकाराय ने आकर समझाया। शोभना ने भी दम-दिलासा दिया। फुसलाया- बहलाया। पर रमाबाई एक से दो न हुईं। विवश हो, शोभना माता से अंक भर मिल रोती हुई विदा हुई। रमाबाई ने कृष्णस्वामी को घर के भीतर खींच, द्वार की सांकल भीतर से चढ़ा ली।