विप्रलब्ध महालय के अन्तरायण में दूसरे खण्ड पर एक एकान्त प्रकोष्ठ था। उसके सामने खुली छत थी। छत पर से सम्पूर्ण महालय का, महालय के उस ओर लहराते समुद्र का तथा क्षीण-कलेवरा हिरण्य नदी का सब दृश्य दीख पड़ता था। बाणबली भीमदेव ने इसी प्रकोष्ठ में अपना डेरा डाला था। अभी संध्या होने में देर थी। सेना की परेड से निवृत्त हो, धूप और थकान से क्लांत, शिथिल गात भीमदेव अपने आवास में लौटे। उनका बूढ़ा विश्वासी सेवक भीमा उपस्थित हुआ, उसने युवराज के शस्त्र-वस्त्र उतारने में सहायता दी। एक गिलास शीतल जल पीकर भीमदेव ने कहा, “भीमा, अब मैं थोड़ा सोना चाहता हूँ, देख-कोई मुझे दिक न करें।' बूढ़े सेवक ने सिर झुकाया और द्वार बन्द करता हुआ बाहर चला आया। थोड़ी ही देर में महाराज भीमदेव शीतल पवन के झंकोरों की थपकियाँ खाकर मीठी नींद सो गए। बहुत देर तक वह सोते रहे। एकाएक एक मृदुल सुखद स्पर्श से उनकी नींद टूट गई। उन्होंने आँखें खोल और अचकचा कर देखा, जैसे उनके चरण-तल में फूलों का ढेर पड़ा हो। चौला उनके दोनों चरणों को आलिंगन में भरे, निमीलित नेत्र और अपने दोनों गर्म होंठ उनके चरण-नख पर स्थापित किए अधोमुखी पड़ी थी। उन्होंने हड़बड़ा कर दोनों हाथ पसार दिए। उनके चरण-तल का तल्प भाग आँसुओं से भीग गया है, यह उन्होंने देखा। प्रेम, आवेश और आनन्द से अभिभूत होकर उन्होंने चौला को अंक में भर कर उसका चुम्बन किया और कहा, “प्राण सखि, रोती क्यों हो?" परन्तु चौला की वाणी जड़ हो गई। स्वर उसके कण्ठ से नहीं फूटा। भीमदेव ने अनेकविध उसका आलिंगन कर विविध चुम्बन लिए, बारम्बार कहा, “कह, कह, रोने का कारण क्या है?" चौला के होंठ खुले। उसने कहा, “म म मैं-मैं नहीं जाऊँगी, मुझे यहीं चरण-तल में आश्रय दीजिए।" “पर तुम्हें भेज कौन रहा है?" “सर्वज्ञ प्रभु की आज्ञा है। वे मुझे खम्भात जाने का आदेश दे चुके हैं।" “किन्तु...” भीमदेव विचार में पड़ गए। चौला ने कहा, “आप उनसे कहिए, उन्हें रोकिए!” उसकी हिचकियाँ बँध गईं। "तो गंगा से कहो, वह सर्वज्ञ से निवेदन कर देगी।" “कहा था।" "फिर? गंगा ने सर्वज्ञ से कहा?" "नहीं।" "क्यों?" “सर्वज्ञ प्रभु समाधिस्थ हैं, निवेदन असम्भव है।' "तब?" 66 "
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