ज्ञाता, त्रिकालदर्शी एवं ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी थे। यह भी कहते थे कि काशी और मिथिला के महा वागीश्वरों से उन्होंने शास्त्रार्थ में दिग्विजय प्राप्त की थी। उनके गुरु कौन थे—यह अब तक कोई नहीं जान सका और वे अनायास ही सोमनाथ महालय के पीठाधिप होकर भरत खण्ड भर में प्रसिद्ध पाशुपत आम्नाय के प्रतीक प्रसिद्ध हो गए। फिर भी गंग सर्वज्ञ और गंगा, इन दोनों की पूर्वापर कथाएँ जैसे वेगवती बरसाती नदी की भाँति, भाँति-भाँति का रूप धारण कर बह चलीं। लोग भाँति-भाँति की बातें करने लगे। गंगा जब महालय के गर्भद्वार के सम्मुख अपना अलस यौवन और उद्दीप्त रूप लेकर नृत्य-कला का विस्तार करती, तो उसके अङ्गन्यास, पदाघात, नूपुर ध्वनि, स्वर-लहरी सब एक साथ स्वर-ताल-मूर्च्छना और वाद्यध्वनि से कम्पित वातावरण से सहस्त्र-सहस्त्र मनुष्यों को आपे से बाहर कर देते थे। महाप्रज्ञ गंग सर्वज्ञ बाघम्बर में निश्चल पद्मासन में बैठकर एकटक निर्निमेष दृष्टि से उस नर्तकी का अद्भुत कौशल निहारते थे। घण्टों तक न उनका शरीर हिलता, न पलक गिरते। भगवान् सोमनाथ में और उनकी मुद्रा में अन्तर सिर्फ इतना था कि सोमनाथ का ज्योतिर्लिङ्ग उस नृत्य के बाद भी जड़ ही रहता था, परन्तु गंग सर्वज्ञ चैतन्य लाभ कर वहाँ से उठ देवता को प्रणाम कर, अपनी कुटी में जा भीतर से द्वार बन्द कर जिस साधना में लीन हो जाते थे, उसे आज तक कोई नहीं जान सका। इसी भाँति ये पच्चीस वर्ष व्यतीत हो गए। जैसे आग जलकर बुझ जाती है, उसी भाँति गंग सर्वज्ञ और गंगा के सम्बन्ध की छोटी- बड़ी प्रकट और गुप्त बातें भी आप ही समाप्त हो गईं। गंगा और गंग सर्वज्ञ, दोनों ही अब प्रौढ़ हो गए। सूर्य मध्याह्न में प्रखरता बिखेरकर ढल गया था, उद्दाम किरणें अब पीली पड़ गई थीं।
गंगा के उन सुन्दर नेत्रों में एक मनोरम गाम्भीर्य अवतरित हुआ था। उन्हीं नेत्रों का बाला के ऊपर निक्षेप करके गंगा ने कहा—
"नृत्य कर सकती हो?"
"कुछ-कुछ।"
"किससे सीखा?"
"महाराज उदयादित्य से।"
"उन्हें कहाँ पाया?"
"पिताजी ने युद्ध में उन्हें बन्दी किया था।"
"सो तुम चालुक्य राजनन्दिनी हो!"
"मैं देव-निर्माल्य हूँ।" बालिका के नेत्र सजल हो गए। वाणी भी कम्पित हुई।
"क्या पश्चात्ताप होता है?"
"नहीं, मनुष्य-भोग्या होने की अपेक्षा देव-निर्माल्य होना उत्तम है।"
"फिर आँखों में आँसू क्यों?"
"यों ही..." उसने आँसू पोंछ लिए।
"देखूं तुम्हारा नृत्य!"
"देवता के सम्मुख ही देख लेना।"
"ऐसा ही सही, तब वस्त्र-विन्यास भी तुम स्वयं यथारुचि करो।"
"उसकी आवश्यकता नहीं, ऐसे ही ठीक है।"