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“मैं कुछ नहीं कहता, पाटन के नागरिक कहते हैं।" “वे क्या कहते हैं?" “वे कहते हैं, हमारे महाराज दुर्लभदेव हैं, वे हमारी रक्षा करें, हम उनकी धन-जन से सहायता करेंगे।" "क्या पाटन के सेठिया मुझे दम्म देंगे?" “अन्नदाता, उनका धन ही नहीं, जीवन भी आपका है, जब आप उनकी रक्षा के लिए प्राण न्योछावर करेंगे, तो वे आपको धन क्यों नहीं देंगे?" इसके बाद उसने अभिप्रायपूर्ण दृष्टि से इस ढोंगी और लालची राजकुमार के कान के पास मुँह ले जाकर कहा, “गुप्त राजकोष कहाँ है, यह मैं जानता हूँ।” दुर्लभ बड़ी देर तक सोचते रहे। फिर बोले, “तो क्या आप मुझे अमीर के सामने पड़ने को कहते हैं?" “नहीं महाराज, इससे क्या लाभ? हमें घोघाबापा और धर्मगजदेव का अनुसरण नहीं करना है।" "तो फिर?" "बस, साँप तो मरे, किंतु लाठी न टूटे।" “किन्तु कैसे?" "अमीर हमारे राज्य को तो लूटना चाहता नहीं। न यहाँ का राजा ही बनना चाहता है। वह जाना चाहता है सोमनाथपट्टन। सो जाए। वहाँ कुमार भीमदेव का लोहा खाकर वह खेत रहा तो जय गंगा। वापस आया तो सीधा अपनी राह लेगा। इस समय हम लड़ते हैं तो उसका बल बहुत है। सोमनाथ से लौटने पर, जय पाकर भी वह विशाल सेना का मुकाबला नहीं कर सकेगा। इसके अतिरिक्त भीमदेव भी वहाँ लोहा लेकर जल्द नहीं पनपेंगे। इससे अमीर का यह आगमन आपके लिए वरदान है। इस सुयोग से लाभ उठाइए महाराज, पाटन ने आपका आह्वान किया है!" दुर्लभदेव सोच में पड़ गए। मन की बात कैसे कहें, यही सोचने लगे। उनके मन की बात ताड़कर भस्मांक ने कहा, 'क्या अमीर ने अभी तक आपके पास सन्देशा नहीं भेजा? वह तो अब सुना है, आबू की उपत्यका में पड़ा हुआ है।" “अमीर का सन्देश मुझे मिला है।अमीर के सामने पड़ना मैं भी नहीं चाहता हूँ।" "बस, बस, वह पाटन और सिद्धपुर की सलामती का वचन दे, तो इतना ही बस “अच्छा तो देव, आप ही अमीर के पास मेरे दूत बनकर जाएँ।" “अच्छा, कहिए, क्या कहना होगा?" "अब यह भी आप ही बताइए कि उससे हमें क्या कहना चाहिए।” भस्मांक हँस दिए। उन्होंने कहा, “महाराज, 'वचने का दरिद्रता' यह नीति का वाक्य है। राजनीति भी कहती है कि मन में चाहे जो हो, पर वाणी तो मीठी ही रहे। विशेषकर शत्रु के सम्मुख, तो उसके अनुकूल बोलना ही ठीक है। "तो समय पर जैसा सूझे, वही कहिए। मैं पाटन का निमन्त्रण स्वीकार करता हूँ। परन्तु आप ही को प्रधानमन्त्री बनना होगा।" "