" "महाराज...' “हाँ-हाँ, किन्तु महाराज तो चामुण्डराय अभी पाटन में विराजमान हैं।" “मैं महाराजकुमार की बात कह रहा हूँ।" “कहिए।" "देश पर म्लेच्छ आ रहा है। महाराज...' “फिर महाराज! कौन महाराज?" "नहीं, नहीं, कुमार दुर्लभदेव उसके दमन में कृतोद्यम हैं, आप उनकी सहायता कीजिए।” "आपको क्या कुमार दुर्लभदेव ने यहाँ भेजा है?" "नहीं मन्त्रीश्वर, मैं तो आपसे एक अनुरोध कर रहा हूँ।" "तो देखिए, आप मठपति हैं। इसलिए रुद्र महालय के सम्बन्ध में यदि कुछ त्रुटि हो तो कहिए। मैं उसपर विचार करूँगा। राज-काज में अनुरोध मानकर शासन करने की मेरी आदत नहीं। रही कुमार दुर्लभदेव की बात, वे राजविद्रोह के एक अभियुक्त हैं, इस सम्बन्ध में जाब्ते की कार्रवाई की जा रही है जो शीघ्र उन्हें ज्ञात हो जाएगी।" “परन्तु मन्त्रीश्वर, वे राजपुत्र हैं।" “राजपुत्र या राजमाता, जो भी हों, पाटन का न्याय-विधान सबके लिए एक-सा ही है।" “किन्तु...” “सुनिए महाराज, यदि राज-दरबारी मामलों में रुचि रखेंगे तो यह समझा जाएगा कि आप भी षड्यन्त्र में सम्मिलित हैं। आप विद्वान पुरुष हैं, संन्यासी हैं, इसी से मैं आपकी भलाई की बात कहता हूँ। आप अपना काम कीजिए। कुमार दुर्लभदेव सैन्य-संधान कर रहे हैं, वह हमारी दृष्टि से ओझल नहीं है तथा राज्य और शत्रु पर उनकी जैसी दृष्टि है, वह भी पाटन का मन्त्री जानता है। परन्तु आपको उचित प्रतीत हो तो आप उनके हितैषी के रूप में उन्हें समझा दीजिए कि जब वे विरक्त होकर साधु ही हो गए हैं तो इस प्रकार की खटपट में माथापच्ची न करें, यही उत्तम है। नमस्कार!" मठपति को और कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई। वे आशीर्वाद दे वहाँ से उठकर विमलशाह ने एक कुटिल हास्य उनपर डाला, और एक पाश्र्वद को कुछ संकेत किया। पाश्र्वद तनिक झुककर चुपचाप मठाधीश के पीछे रवाना हो गया। चले आए।
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