विफल प्रयास से मिलने गए। पाटन में महामन्त्री की सत्ता एकबारगी ही व्याप गई। वह शूरवीर, तेजस्वी, मिलनसार और कुलीन जैन वणिक था। इससे नगर के सभी महाजनों में उसका पहले ही बहुत मान था। उसके मन्त्री होने पर सबने उसे आनन्द बधाइयाँ दीं। महामन्त्री के महालय के आगे हाथी झूम रहे थे, नौकर-चाकर, दास-दासी, दूत, व्यापारी, माण्डलिक, मन्त्री, योद्धा और अनेक पुरुष भाँति-भाँति के अभिप्राय और काम-काज के लिए आ-जा रहे थे। मठपति महामन्त्री का यह वैभव देखकर विमूढ़ हो गए। संध्याकाल में वे महामन्त्री विमलदेव ने उनका उत्थानपूर्वक सत्कार किया। साधारण शिष्टाचार के बाद वार्तालाप प्रारम्भ हुआ। मन्त्री ने कहा- “कहिए, कैसे कब पाटन में पधारना हुआ?" “आज ही मन्त्रीश्वर।" “आज? और तुरन्त ही इस सेवक को दर्शन से कृतार्थ किया-बड़ी कृपा हुई महाराजकुमार दुर्लभदेव प्रसन्न तो हैं?" "प्रसन्न हैं। उनपर दुहरा भार है मन्त्रीश्वर, देवता का भी और राज्य का भी।" “अच्छा!” मन्त्री विमलदेव शाह ने मन्द स्मित करके सम्मुख पड़े बहुत से कागज़ों पर दृष्टि डाली। मठपति नहीं समझ पाए कि इस एक 'अच्छा' शब्द में कितना अंश व्यंग्य का है और कितना अविश्वास और तिरस्कार का। वे कोई राज-दरबारी पुरुष न थे। वे इसी एक शब्द से हतप्रभ हो गए। कुछ ठहरकर उन्होंने कहा, “राज्य पर संकट-काल है। महाराज कर्तव्य से बेसुध हैं, अब आप हैं तो गुजरात का सब-कुछ है।" “यह क्या महाराजकुमार का संदेश है?" "नहीं मन्त्रीश्वर, परन्तु गुजरात का रक्षण होना चाहिए।" "उसकी समुचित व्यवस्था हो रही है।" “किस प्रकार मन्त्रीश्वर?" “यह काम राज-पुरुषों का है, आपका नहीं। आप मुझसे क्या कहना चाहते हैं, वह कहिए।" “मन्त्री के प्रताप और तेज से मठपति की सारी ज्ञान-गरिमा लुप्त हो गई। उन्होंने देखा, चापलूसी और भय इस पुरुष को स्पर्श ही नहीं करते। उन्होंने धीरे से कहा, “मैं यही कहने आया था मन्त्रीश्वर।" "तो यह बात तो खत्म हुई।” “मेरा एक अनुरोध भी है।” आपका?" "महाराज दुर्लभदेव की ओर से।" "महाराज दुर्लभदेव कौन है?" 66
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