था। पर एक राजा को क्या योद्धा होना ही यथेष्ट है! उसके मन्त्री भी ऐसे ही थे। राजा की आयु सत्तर को पार कर चुकी थी, वह अफीम घोलने और रनवासों की नई-नई डेवडनियों से मठोली मारने में अपने बुढ़ापे के दिन व्यतीत कर रहा था। उसका राज-काज आप ही आप चल रहा था। भूखे-प्यासे किसान अपना खून-पसीना एक करके जो अन्न उपजाते थे, उनकी गाढ़ी कमाई का अधिकांश भाग उसके अत्याचारी कर्मचारी उनसे वसूल कर अपनी भी जेब भरते थे और राजकोष भी भरते थे, जिसे मनमानी रीति पर खर्च करने से इस बूढ़े, कामुक और सनकी राजा को रोकने वाला कोई भी न था। दुर्लभदेव ने उसे लिखा, “काकाजू, चिन्ता मत कीजिए, गज़नी के इस दैत्य को सीधा पाटन की ओर तक चला आने दीजिए। यहाँ मैं उसे तलवार के घाट उतारूँगा। आपको अपनी यशस्विनी तलवार को म्यान से खींचने की मुझ दास के रहते आवश्यकता नहीं है।" और सुन्दरी तरुणी डावडनियों से पगचप्पी कराता हुआ यह राजा हंस-हंसकर दुर्लभदेव का यह पत्र पढ़ता और कहता, “रंग है, अरे! मेरी तलवार देखनी हो तो देख, पर छोकरा अच्छा है, परमार को जानता है। यह बेटा अमीर गुजरात जाता है तो जाय। झालौर पर उसने नजर करी तो जीता छोडूंगा नहीं। हा-हा-हा-हा।” और इसके बाद जब अमीर ने उसकी सेवा में अमूल्य जवाहरात से भरा थाल भेजकर मैत्री-याचना की, तो यह लालची बूढ़ा बड़ी देर तक उन रत्नों में कौन कितनी कीमत का है, इसी बात पर अपने रत्नों के पारखीपन की डींग हाँकता और गोली बांदियों पर यह प्रकट करता रहा कि यह अमीर वास्तव में उसके भय से थर-थर काँपता है। इस प्रकार अपनी दोनों योजनाओं को कार्यान्वित कर तथा अमीर को निष्कंटक करके दुर्लभदेव ने अपना तीसरा नेत्र अब पाटन की ओर फेरा। उसके लिए जिन लोगों ने विपित्ति मोल ली थी, उनकी उस स्वार्थी ने चिन्ता नहीं की। उसे केवल अपनी माता महारानी दुर्लभदेवी को जैसे बने, महाराज का मन फेर कर सिद्धपुर ले आने और मन्त्री विमलशाह को समझा-बुझाकर जैसे बने, अपने पक्ष में करने की व्यग्रता थी। सिद्धपुर के रुद्र महालय के मठपति शुक्लबोध तीर्थ, संस्कृत और वेदान्त के पंडित, वयोवृद्ध संन्यासी थे। राजपुत्र के भक्ति-भाव से वह प्रसन्न थे। दुर्लभ ने उन्हें बहुत-सी जागीर दे रखी थी। उसकी कृपा से यह बूढ़े संन्यासी राजशाही रीति पर रहते थे। दुर्लभदेव देवाराधन की अपेक्षा मठपति की ही अधिक आराधन करता था। इससे मठपति उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते अघाते न थे। दुर्लभदेव ने और अन्य जनों से भी पाटन की राज- व्यवस्था की दुरवस्था के उल्टे-सीधे जो चित्र इस वेदान्ती संन्यासी के सम्मुख खींचे थे- उसपर इसने यह पक्की राय बना ली थी कि यदि दुर्लभदेव पाटन का अधिपति हो जाए तो गुजरात का बहुत भला हो सकता है। कुछ सच्चे भाव से भी और कुछ दुर्लभदेव की आराधना से द्रवित होकर वे दुर्लभदेव के समर्थक बन गए थे। इन्हीं को अब दुर्लभदेव ने पाटन जाकर राजा को नर्म करके जैसे बने, महारानी दुर्लभदेवी को मुक्त कराने और मन्त्रीप्रवर विमलदेव शाह को अपना अनुगत बनाने के लिए बहुत ऊँच-नीच समझा कर भेजा। राजनीति को तनिक भी न समझने वाला यह बूढ़ा संन्यासी, बिना इस बात की गुरुता का विचार किए कि वह कहाँ, किस कार्य के लिए जा रहा है, पाटन की ओर चल दिया। दुर्लभदेव उत्कण्ठा से परिणाम की प्रतीक्षा करने लगा।
पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/१६०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।