स्वर में कहा, "शान्तं पापं, शान्तं पापं! देवस्थान में काम-क्रोध-लोभ सभी दोषों का निराकरण होना चाहिए।"
सुलतान ने तलवार म्यान में रख ली। अब उस सौम्य मूर्ति ने युवक की ओर घूमकर कहा, "तुम भरुकच्छ से देव-निर्माल्य लाए हो?
"जय सर्वज्ञ!" युवक ने श्रद्धांजलि हो विनीत स्वर में कहा।
"निर्माल्य अर्पण करो, द्वार खोलो।" युवक ने भूमि मस्तक से स्पर्श करके कहा, "जय सर्वज्ञ, जय स्वरूप! परन्तु निर्माल्य त्रिपुरसुन्दरी की सेवा में है। दद्दा चौलुक्य की आज्ञा है कि वह आचार्यपाद रुद्रभद्र को अर्पण किया जाए।"
"वत्स! चौलुक्य और रुद्रभद्र दोनों ही मेरे आज्ञानुवर्ती हैं—द्वार खोलो!" युवक ने और आपत्ति नहीं की। कोठरी का द्वार खोल दिया। वृद्ध महापुरुष ने वात्सल्य-भरे स्वर में पुकार कर कहा, "बाहर आओ चौला।"
षोडशी बाला लाज, रूप और यौवन में डूबती-उतराती धीरे-धीरे बाहर आ वृद्ध के चरणों में गिर गई।
वह रूप, वह माधुर्य, वह स्वर्ण-देहयष्टि देखकर सब कोई आश्चर्य- विमूढ़ रह गए। युवराज भीमदेव मन्त्र-मुग्ध से उसे देखते रहे। गंग सर्वज्ञ ने उसे उठाकर कहा, "अभय! आओ मेरे पीछे। युवराज तुम भी, और सुलतान तुम भी। अपने साथी की चिन्ता न करो। उसका अभी-औषधि उपचार हो जाएगा।" यह कह कर वृद्ध महापुरुष ने दोनों हाथ उँचे कर, समुपस्थित सैकड़ों विनयावनत भावुक भक्तों को मौन आशीर्वाद दिया और धीरे-धीरे अन्तरायण की ओर चल दिए। उनके पीछे चौला, पीछे युवराज भीमदेव और वह तरुण और उसके पीछे सुलतान चुपचाप चले।
चन्द्रकुण्ड के समीप आकर वृद्ध पुरुष रुके। उन्होंने इधर-उधर देखकर ताली बजाई। एक अन्तरंग सेवक ने आकर अभिवादन किया। सर्वज्ञ ने चौला की ओर संकेत करके कहा, "इसे गंगा के आवास में ले जा और उससे कह कि अभी इसके आहार और विश्राम की व्यवस्था कर दे और कल ब्राह्म-मुहूर्त में गंगाजल से स्नान करा गर्भगृह में ले आए, तब मैं इसे देवार्पण करूंगा।"
सेवक 'जो आज्ञा' कह चौला को लेकर चला। अब उन्होंने स्मित हास्य करके कहा, "वत्स भीमदेव, मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारी मनोकामना पूर्ण हो। अब जाओ, तुम विश्राम करो।"
भीमदेव प्रणाम करके चले गए। महापुरुष कुछ देर स्थिर-गम्भीर-मौन खड़े रहे, फिर सुलतान से बोले, “सुलतान, मैं तुम्हारा क्या प्रिय करूं?" महमूद ने कहा,
"आप ही क्या गंग सर्वज्ञ हैं?"
"सब ऐसा ही समझते हैं सुलतान।"
"आप सत्ताईस वर्ष से इस मन्दिर के पुजारी हैं?"
"पुजारी ही नहीं पाशुपत आम्नाय का एकनिष्ठ सेवक।"
"आप गज़नी के सुलतान से कुछ माँगते है?"
"सुलतान! मैं तो भगवान् सोमनाथ से भी कभी कुछ नहीं माँगता। निष्काम सेवा मेरा एक मात्र धर्म है।"