मुसलमानों से लोहा लेने को सन्नद्ध हो गए और देखते ही देखते पच्चीस हजार मिहिर योद्धा उसके झण्डे के नीचे आ खड़े हुए। अब उसने अपने लश्कर को युद्ध-कला सिखाने के लिए चतुर सेनानायक नियुक्त किए। उत्तम शस्त्रास्त्रों का संचय और निर्माण किया। भिन्न-भिन्न सरदारों की अधीनता में सेना की टुकड़ियाँ बाँटी। प्रतिदिन उनकी कवायद करने का उपक्रम जारी किया। इस काम में ग़फलत न हो इसलिए वह नित्य प्रातःकाल स्वयं सेना की कवायद देखता। इस प्रकार उसने चाहे जिस भी परिस्थिति का सामना करने का सब बन्दोबस्त कर लिया और पूरी सावधानी से अमीर की गतिविधि देखने लगा। उधर राजधानी में गम्भीर उलट-फेर हो चुके थे। महारानी दुर्लभदेवी और पाटन का प्रधानमन्त्री वीकणशाह, जो उसका सहायक था, राजवध के अपराध में बन्दी हो गए थे और प्रधानमंत्री का पद उसके शत्रु और शत्रुओं के समर्थक विमलदेव शाह को मिल चुका था। प्रधान सेनापति बालुकाराय और दामोदर महता पहले ही वल्लभदेव के गुट के व्यक्ति थे। सो एक प्रकार से राज्य इस समय वल्लभदेव का था। महाराज चामुण्डराय अब नाममात्र के पुतले की भाँति गद्दी पर बैठे थे। उनकी कोई बात अब कोई सुनता ही न था। पाठक जानते ही हैं कि विमलदेवशाह एक ऐसा जनूनी और तेजस्वी व्यक्ति था जो किसी की, यहाँ तक कि राजा की भी परवाह न करता था। उसने राजा की मर्जी के बिना ही वल्लभदेव और भीमदेव को लाखों दम्म सेना की भरती के लिए भेज दिए थे। अब तो वह खुल्लमखुल्ला प्रधानमन्त्री था। और दामोदर महता तथा बालुकाराय की सलाह से उसकी सवारी राज-गज पर नगर में धूमधाम से निकल चुकी थी, जिससे सब छोटे-बड़े जनों ने महामन्त्री के रूप में उसका अभिनन्दन किया था। परन्तु इन सब विपरीत परिस्थितियों से दुर्लभदेव नहीं घबराया। सेना की व्यवस्था और कोषागार का प्रबन्ध ठीक करके उसने तीन काम किये। महारानी दुर्लभदेवी, जो नान्दोल के राजकुमार को गोद लेना स्वीकार कर नान्दोल की सहायता प्राप्त करना चाहती थी, वह उसे बिलकुल पसन्द न था। इस गोद लेने की योजना का वह पूरा विरोधी था। यद्यपि अभी उसका कोई पुत्र उत्पन्न नहीं हुआ था। फिर भी उसे आशा थी। परन्तु अपने विरोध को उसने कभी किसी पर प्रकट नहीं किया। वह रानी की हाँ-में-हाँ मिलाता रहा। अनहिल्लराय को भी प्रेम और आदर से भरे पत्र लिखता रहा तथा भेंट भेजता रहा। जब गज़नी का अमीर अजमेर से आगे बढ़ा और नान्दोल में आमेर के दुर्लभराय ने आकर अपनी योजना अनहिल्लराय से कही तो अनहिल्लराय ने सांढ़नी-सवार भेजकर दुर्लभदेव से राय पूछी थी। दुर्लभदेव तो यह चाहता था कि इस अवसर पर अमीर से टकराकर अनहिल्लराय पिस मरे। उसने खूब उत्तेजित भाषा में अनहिल्लराय को इस धर्म-शत्रु से लोहा लेने को उकसाया और दो हाथी सोने के दम्म भर कर सहायतार्थ भेज दिए। पत्र और दम्म पाकर अनहिल्लराय प्रसन्न हो गया। और जब दुर्लभराय कछवाहे ने उसे ऐसी योजना बताई जिसमें न तो उसके एक सैनिक पर आँच आती थी, न एक पाई खर्च होती थी, वह धर्म के शत्रु से मिल जाने के अपवाद से भी बच जाता था और दुर्लभराय का भी प्रेम-भाजन बनता था, इन सब बातों पर विचार करके, उसने दुर्लभराय कछवाहे की योजना स्वीकार कर ली थी। अत: इस मामले में दुर्लभदेव की
पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/१५८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।