सिद्धपुर में श्रीस्थल की पवित्र भूमि में आज भी सिद्धपुर एक समृद्ध नगर है। गुजरात में वह पवित्र तीर्थ माना जाता है। अत्यन्त प्राचीन काल में यहाँ महर्षि कपिल ने अपनी माता को तत्त्वज्ञान का उपदेश दिया था। जिस काल की कथा हम कहते हैं, उस काल में सिद्धपुर की आबादी खूब बढ़ी-चढ़ी थी। यद्यपि अनहिल्लवाड़ पाटन गुजरात की राजधानी थी, परन्तु सिद्धपुर की शोभा और समृद्धि उस समय पाटन से कम न थी। सिद्धपुर का इलाका महाराज चामुण्डराय ने अपने मंझले पुत्र दुर्लभदेव को दे दिया था। दुर्लभदेव राजधानी में न रहकर सिद्धपुर में ही रहते थे। दुर्लभदेव बड़े खटपटी पुरुष थे। उन्हें साहूकार चोर कहना ठीक होगा। वह ईर्ष्यालु, लोभी, दम्भी और महत्त्वाकांक्षी पुरुष थे। जबर्दस्त के आगे झुक कर काम निकालने में वे बड़े निपुण थे। अपनी कार्य-सिद्धि के लिए वह सब-कुछ कर सकते थे। वह कभी किसी का विश्वास नहीं करते थे, सदा सबको सन्देह की दृष्टि से देखते थे। लुच्चे-लफंगे, जी हुजूरिए सदैव उन्हें घेरे रहते, जिनसे वह अपने सारे उल्टे-सीधे काम लेते रहते थे। अपने काम सिद्ध कर लाने वालों को दुर्लभदेव दिल खोलकर इनाम-इकराम देते थे। वह निरन्तर कोई-न- कोई षड्यन्त्र करते ही रहते थे। मन का भेद कभी किसी पर प्रकट नहीं करते थे। स्वभाव के वह पूरे निर्दयी थे। सिद्धपुर का इलाका और पूरी आय उनके अधीन न होने पर भी लोग उन्हें सिद्धपुर का राजा ही मानते थे। पाटन की राजनीति की ढील और अव्यवस्था से उन्होंने काफी लाभ उठाया था। महाराज चामुण्डराय की तो वह कुछ परवाह ही नहीं करते थे। वर्षों से उन्होंने राजस्व, न राजकोष में जमा कराया था, न उसका हिसाब-किताब ही किसी को दिया था। और अब तो वह इस खटखट में पड़े थे कि अपने पिता महाराज चामुण्डराय और बड़े भाई वल्लभदेव को मारकर या बंदी बनाकर गुजरात की गद्दी हथिया लें। महारानी दुर्लभदेवी और मन्त्रीश्वर वीकणशाह उनके षड्यन्त्र में सम्मिलित थे। उधर नान्दोल का अनहिल्लराय भी महत्त्वाकांक्षी था। गुजरात की गद्दी पर उसकी गृध्र-दृष्टि थी। अत: वह भी अपने ताने- बाने बुन रहा था। पाठक जानते ही हैं कि उनके खटपटी दूत जैन यति ने किस प्रकार पाटन का राजपाट विद्रोह और षड्यन्त्र से दूषित कर दिया था। परन्तु मुद्दे की बात यह थी कि दुर्लभदेव एक तो अपने भतीजे भीमदेव से भय खाता था, और अपने भाई वल्लभदेव से उनके प्रेम और सहयोग को नहीं सह सकता था; दूसरे वह अनहिल्लराय की महत्त्वाकांक्षा को भी विष-दृष्टि से देखता था। वह तो उन्हें अपना हथियार बनाना चाहता था और कुछ नहीं। पाठक जानते ही हैं कि दामोदर महता की जाग्रत कूटनीति ने, उसका पाटन का विद्रोह विफल कर दिया था। परन्तु वह हार मानने वाला पुरुष नहीं था। इसी समय उसके लिए यह एक प्रकार का सुयोग ही हाथ आ लगा कि गज़नी के सुलतान की गुजरात पर अभियान की सूचना उसे मिली। उसने दुर्लभ संयोग से दुर्लभ लाभ उठाने की ठान ली।
पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/१५६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।