में पहुंचा दिया। किले और नगर का उल्लास गहरे शोक की घनघोर घटाओं में छिप गया। चारों तरफ रोना-पीटना मच गया। मरे हुए पुत्रों की माताएँ छाती कूटने लगीं। विधवा युवतियों के करुण-क्रन्दन से आकाश भर गया, अनगिनत कोमल कलाइयों की सुहाग- चूड़िया चटापट पत्थरों पर टूटने लगीं। पिता अपने पुत्रों के लिए सिर धुनते पागल की भाँति रुदन करने लगे। युवती अबलाएँ और अबोध बालक अनाथ होकर सिसकने लगे। लोग हजार-हज़ार मुख से गज़नी के दैत्य को गालियाँ देने और कोसने लगे। लाखों मनुष्यों का धरती-आकाश पर कोई रक्षक न रह गया। महाराज धर्मगजदेव के शव के किले में पहुँचते ही महारानी तुरन्त सती होने को तैयार हो गईं। उनके साथ महल की अन्य सैकड़ों राज-परिवार की स्त्रियों, दासियों और सखियों ने भी चिता-रोहण कर भस्म होने का निश्चय कर लिया। रानी ने शोक-सन्तप्त वाणी से कहा, “अरी सखियों, सुख-दु:ख का साथी, लाड़-प्यार करने वाला, इस देह का आधार जब नहीं रहा, तो फिर जी कर, जीवन की ख्वारी करने से क्या? जब शरीर से जीव ही चला गया तो निर्जीव शरीर का शृंगार ही क्या? क्या हम प्रिय पति का वियोग सहकर, विधवा-वेश धारण करके जीवित रहेंगी? क्यों न हम स्वर्ग का अक्षय सुख भोगें, जहाँ हमारे प्राण-प्यारे वीर पति प्रथम ही पहुंच चुके हैं। चलो सखियों, हम वीर पति का सहगमन करें, जितना विलम्ब होता है उतना ही अन्तर पड़ता है। शोक त्यागो, अग्नि-रथ पर बैठकर पतिलोक को चलो।" रानी ने इतना कह आँसू पोंछ डाले। माथे पर ईंगुर का टीका किया, कुंकुम की आड़ लगाई, कंठ में सुगन्धित फूलों के हार पहने। काले चिकने बालों की लटें मुक्त कर दीं, हाथों में मेंहदी रचा दी। पचरंगी चूनरी शरीर पर धारण की। अन्य स्त्रियों ने भी ऐसा ही शृंगार किया। आगे-आगे रानी और पीछे अन्य स्त्रियाँ चलीं। पीछे हज़ारों दास-परिजन रोते हुए। जय शाकम्भरी, जय अम्बे, जय सती माता की पुकार ने आकाश को चल-विचलित कर दिया। चौक में चबूतरे पर विशाल चिता सजी थी। उसमें महाराज का चन्दन-चर्चित शरीर स्थापित किया गया। चिता के निकट आकर रानी ने सूर्य को अर्घ्य दिया और स्थिर चरणों से चितारोहण कर पति का सिर गोद में लिया तथा ध्यान में स्थिर होकर बैठ गईं। ढोल, शहनाई बजने लगे। उनका ऐसा नाद हुआ कि कानोंकान शब्द नहीं सुनाई देता था। सहस्रों कण्ठों से 'जय माता सती, जय अम्बे' की ध्वनि निकली। रानी दोनों नेत्र बन्द कर पति का सिर गोद में लिए ध्यानस्थ बैठी थीं। अन्य स्त्रियाँ भी उनके पीछे चिता पर उसी भाँति बैठी थीं। राज पुरोहित आचार्य कृपाशंकर ने रुदन करते हुए बालक कुमार वीसलदेव को आगे कर कहा, “माता सती, अजमेर और अजमेर के भावी अधिपति को आशीर्वाद दीजिए!” रानी ने स्थिर कण्ठ से हाथ उठाकर कहा, "अजमेर के निवासियों और भावी अजमेर के अधिपति की जय हो!” रानी ने अब चिता में अग्नि देने का संकेत किया। ब्राह्मणों ने चिता में घृत और कपूर रख मन्त्रपाठ करते हुए अग्नि दी। बाजे ज़ोरों से बज उठे। सैकड़ों शंख और घड़ियाल गर्जने लगे। सूखा चन्दन, काष्ठ, घी और ज्वलनशील पदार्थों की सहायता से यह चिता देखते-देखते धधकने लगी। ज्वाला का वेग इतना बढ़ा कि चिता के पास से लोग हटने लगे। परन्तु उनके राजभक्त सेवक और दासियाँ भी दौड़-दौड़कर चिता
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