शाह मदार एक प्रहर रात्रि बीत चुकी थी। सारा नगर रास-रंग में मस्त था। ऐसे ही समय में दो व्यक्ति छिपी नज़रों से यह सब समारोह देखते अत्यन्त सावधानी से नगर के मुख्य बाजारों में होते हुए, बीच-बीच में गली-कूचों को पार करते चुपचाप चले जा रहे थे। उन्होंने साधारण नागरिक का वेश धारण किया था। इस समय अजमेर नगर के पूर्वी कोण में जो शाह मदार की टेकरी है, उसी टेकरी की तलहटी में एक पुराना शिवालय था। शिवालय के चारों ओर बहुत छोटे-बड़े मन्दिर थे। मन्दिर का प्रवेश-द्वार पूर्व दिशा में था और उत्तर में पुजारियों के घर थे। पुजारियों में अनेक वहाँ पुत्र-परिजन के साथ रहते थे। इन्हीं पुजारियों के मकानों से तनिक हटकर टेकरी के ऊपर एक छोटी-सी खानकाह थी जिसमें प्रसिद्ध सूफी सन्त शाह मदार रहते थे। शाह मदार मस्त और दौला-मौला आदमी थे। वे बेलौस और फक्कड़ प्रसिद्ध थे। खुशमिज़ाज और मिलनसार थे। अजमेर के आस-पास उनकी बहुत मान्यता थी। वे गंडे-तावीज़, मंत्र-दुआ देते, लोगों की खैर मनाते और टिक्कड़ मांगकर खाते थे। खानकाह के पास एक पुराना मठ था, पर वह सूना ही रहता था। कोई भूला-भटका साधु वहाँ ठहर जाता था। शाह मदार बहुधा किसी वृक्ष के नीचे चुपचाप बैठे रहते थे। घूमते-फिरते ये दोनों व्यक्ति टेकरी के पास जा पहुँचे। शाह साहेब इस समय ध्यान-मुद्रा में वृक्ष के नीचे बैठे थे। दो भक्तगण सम्मुख बैठे उनकी मुख-मुद्रा निहार रहे थे। दोनों व्यक्तियों ने हिन्दू पद्धति से धरती पर माथा टेक कर उन्हें प्रणाम किया। परन्तु फकीर ने उनकी तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखा। दोनों व्यक्ति चुपचाप दूसरे मनुष्यों के बीच में जा बैठे। बहुत देर तक कोई बातचीत नहीं हुई। बैठे हुए जनों में अनेक उठकर चले गए। एकाएक साधु ने नेत्र उघार-कर इन अगन्तुकों को देखा और और आप-ही-आप कुछ गुनगुनाते हुए कहा, “अय नादान, खुदा की बन्दगी कर, और उसके जलाल का ज़हूर देख।” दोनों आगन्तुकों ने पृथ्वी पर फिर माथा टेका। इसी समय एक पुरुष ने उनका कन्धा छू कर अपने पीछे आने का संकेत किया। दोनों व्यक्ति उठकर उसके पीछे-पीछे चल दिए। वह आदमी मठ के द्वार पर खड़ा हो गया और उन्हें भीतर जाने का संकेत किया। दोनों व्यक्ति मठ में घुस गए और वह व्यक्ति मठ के द्वार पर इस तरह खड़ा हो गया कि एक मक्खी भी द्वार में प्रविष्ट न हो सके। भीतर एक युवक बेचैनी से टहल रहा था। युवक के वस्त्र बहुमूल्य, तलवार कीमती और मुख-मुद्रा सुन्दर थी। उसकी आयु छब्बीस वर्ष के लगभग थी। रंग उसका गौर था और मस्तक की पगड़ी में एक मूल्यवान् हीरा भी चमक रहा था। दोनों व्यक्तियों ने हाथ जोड़कर युवक को प्रणाम किया और करबद्ध खड़े हो गए। युवक ने उन्हें घूरकर देखा, फिर कहा, “संकेत?" "सोमनाथ।” “ठीक है। कहो, क्या कहना है?"
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