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कपट- ट-सन्धि महाराज धर्मगजदेव ने उसी समय कुलदेवी शाकम्भरी के मन्दिर में जाकर बलिपूजा-अर्चना की। नारियल फोड़ा। सभी सामन्त, मांडलिक और सरदारों ने महाराज की जय-जयकार की। तदनन्तर घायलों की सेवा और मृत सैनिकों एवं बन्दियों की समुचित व्यवस्था करके महाराज ने रात्रि के पिछले प्रहर शस्त्र खोलकर विश्राम किया। घावों का उपचार कराया। दूसरे दिन प्रहर दिन चढ़े श्वेत पताका उड़ाते हुए अमीर के सन्धि-दूतों ने, महाराज धर्मगजदेव के दरबार में अति वनिम्र भाषा में अमीर का सन्धि–प्रस्ताव उपस्थति किया। महाराज ने प्रेम और कृपापूर्वक दूतों का भरी सभा में स्वागत किया एवं सब सरदारों से परामर्श करके कहा, “यदि अमीर स्वेच्छा से भारतवर्ष छोड़कर स्वदेश लौट जाए और फिर कभी भारत में आने की चेष्टा न करे, तो हम बिना किसी बाधा के उसे चला जाने देंगे। सब बन्दियों को भी मुक्त कर देंगे। हमारी अमीर से कोई शत्रुता नहीं है। अतः हम अकारण उससे युद्ध नहीं करना चाहते।" सन्धि-दूतों ने अमीर की ओर से अत्यन्त कृतज्ञता और प्रसन्नता से यह प्रस्ताव स्वीकार किया। और वचन दिया कि यद्यपि अमीर बहुत घायल हैं, चलने-फिरने और यात्रा करने के योग्य नहीं हैं, परन्तु हम आज ही यहाँ से कूच कर देंगे। सन्धि स्थापित हो गई। सन्धि-दूत वापस अमीर की सेवा में लौट गए। दोपहर दिन व्यतीत होते-होते अमीर का लश्कर पीछे हटने लगा। खेमे उखड़ने लगे। ऊँट लदने लगे। सारे लश्कर में लदालदी होने लगी। यह देख संतुष्ट हो महाराज धर्मगजदेव ने थोड़ी सेना साथ में रख, शेष सब सैन्य अजमेर को वापस भेज दी। विजयिनी सेना ने बाजे-गाजे से अजमेर में प्रवेश किया। यद्यपि राजपूतों के बीस हजार सैनिक खेत रहे थे, फिर भी विजय के मद में राजपूत सेना अत्यन्त उत्साहित थी। नगरवासियों ने सेना का हर्षनाद से स्वागत किया। नगर सजाया गया, रंग-बिरंगी पताकाएँ राजमार्ग पर फहराने लगीं। लोग आनन्द- उत्सव मनाने लगे। किले, राजमहलों में गान, वाद्य, रोशनी, दीपावली की व्यवस्था हुई। राजकुल की स्त्रियों ने महारानी को बधाइयाँ दीं। महारानी ने मुक्त-हस्त से स्वर्ण-रत्न दान करके अपनी उदारता का परिचय दिया। नगर के सभी देव-मन्दिरों में जय-घण्ट बजने लगे। राजपुरोहित कृपाशंकर आचार्य ने राजमहल में आकर यज्ञानुष्ठान किया। नगर-सेठ पानाचन्द शाह ने आकर बधाइयाँ दीं। सम्पूर्ण नगर ने उस दिन दीपावली मनाई।