पालन न कर प्राण बचाने का श्रेय-लाभ किया। यह आपने क्षत्रियों की नवीन मर्यादा स्थापित की। आपने इस युक्ति से मुलतान बचा लिया, और अब रहा-सहा पुण्य लाभ करने सुलतान की दासता करके उनका दूतत्व करते हुए, उसे देवस्थान नष्ट करने पट्टन ले जा रहे आप ही ने लोह कोट के सुलतान को मार्ग देने को राजी किया था, यह आपकी कीर्ति मैं सुन चुका हूँ। महाराज, आपकी इस कीर्ति का स्वर्ग में बखान करने आपके दादा घोघाबापा पहले ही स्वर्ग पहुँच चुके हैं, जिन्होंने आपको बचपन में घुटनों पर खिलाया था। महाराज अजयपाल, आपने चौहानों को अच्छा मार्ग दिखाया, आप जैसे शूरवीर तलवार के धनी तो शत्रु के गोइन्दे बनें, और आपके वृद्ध पूज्य पुरुष रणस्थली में मृत्यु के भोग बनें? आप सपादलक्ष के उपकार के ही विचार से आए थे, अन्ततः यह राज्य भी तो आप ही का है। परन्तु महाराज, मैं दुर्भागी आपकी भली सीख से लाभ न उठा सका। अब आप सुलतान के सेनापति को हमारा वक्तव्य समझा दीजिए। जिससे वह सुलतान को ये ही सब बातें ठीक- ठीक बता सके।... "और अब, महाराज अजयपाल, आप जा सकते हैं। आपसे, सम्बन्धी की भाँति भुज-भर भेंट करने का यह अवसर नहीं है। आपका समय बहुमूल्य है और कुछ कहने-सुनने योग्य बात नहीं है।" महाराज धर्मगजदेव का यह भाषण सुनकर, मुलतान के अधिपति का मुँह ठीकरे के समान निष्प्रभ हो गया। उन्होंने नेत्र नीचे कर लिए। शेष दोनों दूतों के मुँह भी भरे बादलों के समान गम्भीर हो गए और वे नीचा सिर किए वहाँ से चल दिए।
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