“वह मैं समझ गया। हानि की जोखिम आप उठाना नहीं चाहते, केवल लाभ ही लाभ। भीमपाल को भी आपने यही लाभ की राह दिखाई है, और अब मुझे भी यही परामर्श देने आए हैं!" महाराज धर्मगजदेव क्षण भर मौन रहे, फिर उन्होंने सेवन्दराय की ओर देखकर कहा- “आप भी शायद राजपूत हैं?" "हाँ महाराज, आपकी इच्छा हो तो अमीर आपको यथेष्ट हरजाना... "बस, बस, इतना ही यथेष्ट है। तो, सज्जनो, मेरा उत्तर है कि यशस्वी गज़नी के सुलतान का हमने कुछ बिगाड़ा नहीं है। इसलिए किसी भी हालत में हम सुलतान के शत्रु नहीं हैं। परन्तु सुलतान बुरी नीयत से हिन्दुओं के धर्ममन्दिर सोमनाथ को भंग करने के निमित्त, राह में खूनखराबा और लूटपाट करता और गाँवों-नगरों को जलाकर खाक करता आ रहा है, यह ज़बर्दस्ती दूसरों के धर्म और अधिकारों की अवज्ञा है। दूसरों के घरों पर डाका डालना है। इसे न बहादुरी कहा जा सकता है, न इससे सुलतान की नेकनामी बढ़ती है। इसके विरुद्ध सुलतान ऐसे कामों से लालची, अत्याचारी, लुटेरा, खूनी और आततायी प्रसिद्ध हो रहा है। यशस्वी सुलतान ने कई बार भारत को तलवार और आग की भेंट किया है। हर बार उसने हिन्दू मन्दिरों को तोड़ा, हिन्दू स्त्रियों की लाज लूटी और हिन्दू लोगों को गुलाम बनाया है। इन लोगों ने सुलतान का कभी कुछ नही बिगाड़ा था। वे उसके देश से दूर, अपने देश में, अपने धर्म और विश्वास से रहते हैं। उन्होंने सुलतान के देश पर हमले नही किए, उसके देश को लूटा नहीं। फिर उनके देश में आकर जबर्दस्ती उनके धर्म, जीवन और घर-बार को इस तरह निर्दयता से नष्ट करना, यशस्वी सुलतान के लिए न्याय की बात नहीं है। शोभनीय भी नहीं है। इसलिए, सुलतान यदि सचमुच इस सेवक के सम्मुख मित्रता का हाथ आगे बढ़ाते हैं, तो मैं मित्र की हैसियत से कहूँगा कि सुलतान अपने देश को लौट जाएँ और दूसरों के धर्म में तलवार के ज़ोर से बाधा न डालें। यदि सुलतान इस राजपूत मित्र की यह नेक सलाह नहीं मानेंगे, मुलतान को जीते-जी अपने राज्य में होकर आगे बढ़ने से रोकना मेरा वैसा ही पवित्र धर्म और कर्तव्य हो जाता है, जैसा सुलतान का ऐसे खूनी आक्रमण करना...। "हम राजपूत मित्रों का अतिथि-सत्कार करने में तुलना नहीं रखते। यदि सुलतान मित्र हैं, तो वे हमारे धर्म और देश के प्रत्येक आदमी के साथ वैसा ही बर्ताव करें, जैसा अपने और देश के आदमियों के साथ करते हैं। तब सुलतान का अजमेर में स्वागत है। धर्मगजदेव उनका अतिथि-सत्कार करने में सर्वस्व न्योछावर करेगा। परन्तु यदि सुलतान हमारे धर्म, और हमारे देश के आदमियों को तलवार और मौत के घाट उतारने पर ही तुले हुए हैं, तो यह चौहान धर्मगजदेव रणस्थली में तलवार से उनका सत्कार करने को यहाँ सन्नद्ध है।" सपादलक्ष के अधिपति महाराज धर्मगजदेव ने जलद गम्भीर वाणी से ये वचन कहे। फिर मुलतान के महाराज अजयपाल की ओर मुँह करके कहा- “महाराज अजयपाल, आप हमारे सम्बन्धी हैं, चौहान हैं। हमारा आपका खून एक है। परन्तु आप जो संदेश लेकर आए हैं, उसके कारण इस खून की एकता के नाम पर मैं आपकी ओर से लज्जित हूँ। महाराज, आप सिन्ध नद के दिग्पाल हैं। सो आपने अपना कर्तव्य
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