लाल हो गया। उन्होंने तलवार Vत ली। इसी समय खवास राजाज्ञा का पालन करने को आगे बढ़ा। विमलदेव ने खट से उसका सिर काट लिया। राजा के सामने खून की नदी बह निकली, लाश तड़पने लगी। राजा का क्रोध हवा हो गया। वह भय से थर-थर काँपने लगा। खवास, चाकर, जी हुजूरिये सब भाग खड़े हुए। विमलदेव शाह ने आगे बढ़कर कहा, “महाराज, उचित तो यह है कि आप की जिस ज़बान पर गाली चढ़ी है, वह ज़बान अभी काट ली जाए, पर इस बार माफ करता हूँ। विमलदेव शाह गुजरात का राजस्व-सचिव है, उसके साथ गुर्जरेश्वर को प्रतिष्ठा का व्यवहार करना चाहिए।" राजा की वाणी जड़ हो गई। उसने भर्राए स्वर में कहा, “तो विमल, तू अपने राजा को मार डाल या दम्म दे।" "दम्म तो दूंगा नहीं। जितना था, दे चुका हूँ।" राजा को रुपयों की बड़ी आवश्यकता थी। उसने बहुत-सा मूल्यवान पत्थर खरीदा था। कुछ मालव की गणिकाएँ आई थीं। उन्हें धन देना था। और भी खर्च थे। जितना रुपया आता था वह तुरन्त ही उड़ जाता था। महाराज हिसाब-किताब रखते नहीं थे। हाथ उनका खुला हुआ था। उन्हें हर समय ही धन की आवश्यकता रहती थी। राजा ने आँखों में आँसू भरकर कहा, “तो तू मुझे मार डाल विमल।" “यह काम मैं तो नहीं करूँगा। पर महाराज, इसका भी प्रबन्ध हो चुका है। सम्भवत: आज ही आपकी यह इच्छा भी पूरी हो जाएगी। मैं अब जाता हूँ।” यह कहकर रक्त से भरी तलवार हाथ में ले विमलदेव शाह लौट चले। राजा ने रोककर कहा, “अरे ठहर विमल, यह क्या बात कही तूने? इसका क्या मतलब है?" अब धीरे-धीरे दामोदर महता ने आकर राजा को प्रणाम किया। उसने कहा, “यह बात मुझसे पूछिए महाराज।" “क्या तू भी इस षड्यन्त्र में है महता? और तुम सब लोग राज-वध किया चाहते हो?" “महाराज!” दामोदर ने कहा,“राजवध कौन करना चाहते हैं, और कौन महाराज की रक्षा करते हैं, महाराज को इस पर विचार करने की फुरसत ही नहीं है।" “फुरसत क्यों नहीं है, पर तुम लोग सब मनमानी करते हो, मुझे कुछ बताओ तभी 'तो महाराज, यह यशस्वी महाराज मूलराज देव की अकलंक गद्दी है। और महाराज राजराजेश्वर चामुण्डराय न्याय-विधान में पीछे नहीं है। मैं एक अभियोग उपस्थित करता हूँ, महाराज इस पर विचार करें।" “और विमल?" “विमलदेव शाह साक्षी रहें।" “अच्छी बात है, अभियोग उपस्थित कर।' “परन्तु महाराज, एक वचन दीजिए, अभियोग चाहे जिस भी पुरुष के विपरीत हो, और वह पुरुष चाहे जैसा भी प्रभावशाली और महाराज का प्रिय हो, आपको न्याय न।" 66 66
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