राज-कलह गुर्जरेश्वर महाराज चामुण्डराय अत्यन्त क्रुद्ध थे। वे क्रोध में आकर अंटसंट जो मुँह में आता था, वही बकझक रहे थे। उनके सम्मुख गुजरात के राजस्व सचिव विमलदेव शाह बैठे थे। उनके चेहरे पर भी दृढ़ता और विद्रोह के चिह्न स्पष्ट थे। महाराज ने कहा, “गुजरात का राजा मैं कि तू?" "आप,” विमलदेव शाह ने संक्षिप्त जवाब दिया। "तो राजकोष का स्वामी कौन?" “मैं।" महाराज ने क्रोध से काँपते हुए कहा, “तू तो चाकर।" "चाकर राज्य का, राजा का नहीं।' “राजा का क्यों नहीं?" "राजा भी राज्य का चाकर।" “यह बात है? तू राजविद्रोही है।" “मैं राजसेवक हूँ।” “पर मैं, जैसी मेरी इच्छा होगी, राजकोष खर्च करूँगा।" “यह नहीं हो सकता।" “तूने वल्लभ को दम्म क्यों भेजा?" “उसकी आवश्यकता थी राजकार्य के लिए।" "मेरी आज्ञा क्यों नहीं ली?" “महाराज को राजकाज देखने का होश ही नहीं है, राजकाज तो दूसरे ही देखते " " "दूसरे कौन?" “जैसे मैं।" "तो राजा कौन?" "महाराज!" "तब दे राजकोष मुझे।' "नहीं, राजकोष राज्यकार्य में व्यय होगा।' “मैं तुझे पदभ्रष्ट करता हूँ।" “मैं अस्वीकार करता हूँ।" "तेरा इतना साहस?" "बिना साहस के तो महाराज, राजकाज होता नहीं।" राजा के मुँह से क्रोध के मारे झाग निकलने लगे। उन्होंने एक खवास की ओर देखकर कहा, “पकड़ इस हरामखोर को।" हरामखोर की गाली राजा के मुँह लगी थी। गाली सुनकर विमलदेव शाह का मुँह
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