भस्मांकदेव उस टूटती रात में, सबके विदा हो जाने पर दामोदर महता अपनी घोड़ी पर सवार हो धीरे-धीरे राज-पथ पर अग्रसर हुए। इस समय उनके मस्तिष्क में दो विचारधाराओं का संघर्ष हो रहा था। इधर अन्तर्विग्रह से पाटन का राजतन्त्र खण्डित हो रहा है, उधर मालवराज पाटन का बहिःसंरक्षण खण्डित कर गजसैन्य पाटन पर लाने की अभिसन्धि में हैं। तीसरे-गज़नी का यह दैत्य पाटन पर धंसा चला आ रहा है। जैसे भी हो, दोनों विनाश की योजनाओं को व्यर्थ करना होगा। वह भी बिना तलवार के। तलवार तो गज़नी के सुलतान के लिए ही सुरक्षित रखनी होगी। उन्होंने भस्मांकदेव के आवास की ओर घोड़ी फेरी। नगर के बाहर धवलगृह के मार्ग पर भस्मांकदेव का भव्य आवास था। यह आवास एक मनोरम उद्यान में था। भस्मांकदेव गुर्जरेश्वर के राजमन्त्री न होने पर भी राजमन्त्री थे। वे राजपुत्रों के विद्यागुरु, परम तेजस्वी और विद्वान ब्राह्मण थे। पाटन में उनका मान और नाम राजा और प्रजा दोनों ही में बहुत था। राजकाज और राजनीति में यह ब्राह्मण राजपुरुष न होने पर भी सक्रिय भाग लेता था। कुमार भीमदेव को उन्होंने सर्वशास्त्र-निष्णात किया था। और युवराज वल्लभदेव के ये 'व्यक्तिगत मन्त्री' समझे जाते थे। राजा, राज्य और देश के गौरव के विरुद्ध कोई भी बात भस्मांकदेव सहन नहीं कर सकते थे। इस ब्राह्मण की योजनाएँ और क्रियाशक्ति अति समर्थ होती थीं। शास्त्रों के परम निष्णात पण्डित होने के साथ भस्मांकदेव शस्त्रों के समर्थ प्रयोक्ता, संगीत और साहित्य के मर्मज्ञ ज्ञाता और वृत्ति के अति सरल सात्त्विक पुरुष थे। भस्मांकदेव के द्वार पर पहुँचकर दामोदर को सेवक द्वारा मालूम हुआ कि भस्मांकदेव अपने अध्ययन-कक्ष में हैं। सूचना पाते ही उन्होंने उसे बुला लिया। शिष्टाचार के बाद भस्मांकदेव ने हँसकर कहा- “यह क्या बात है दामो, पाटन की राजनीति तारों की छांह में चलती है?" “राजनीति और ज्ञाननीति दोनों ही तारों की छाँह में चलें तो ठीक ही है। सूर्य के प्रकाश में तो उनकी गूढ़ता भंग होती है। तभी तो देव रात-रात भर अध्ययन करते है।" “यह तो मेरी आदत है दामो, परन्तु तुम कहो। देश-देश के राजमन्त्री जहाँ इस समय सुख की नींद सो रहे हैं, यह पाटन का मन्त्री कहाँ-कहाँ भटक रहा है?" “क्या किया जाए, यह राजतन्त्र है ही ऐसी आपत्ति।" "परन्तु इस आपत्ति में राजमन्त्री ही रात्रि-जागरण करते हैं या राजा भी?" “राजा भी जागरण करते होंगे। वे दिन-भर ऊँघते हैं। इसी से समझा जा सकता है। परन्तु उनके जागरण के कारण तो दूसरे ही हैं।" “मद्य, संगीत और सौन्दर्य?" “जी हाँ।' "तो महता, कहो, मैं तुम्हारी क्या सेवा कर सकता हूँ?"
पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/११४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।