जब अपना आवरण उतारा तो उन्हें पहचान कर यह पुरुष आश्चर्य से विमूढ़ ही हो गया। आगे तलवार हाथ में लिए जो पुरुष था, वह बालचन्द्र खवास था। और दूसरा उसका साथी, स्वयं महारानी दुर्लभदेवी थीं। द्वार बन्द हो जाने से वह और कुछ न देख सका, परन्तु उसे यह जान लेने में तनिक भी सन्देह नहीं रहा कि यह कोई भारी षड्यंत्र है, जिसमें नान्दोल का राज्य भी सम्मिलित है। उसने उस खण्डहर के चारों ओर चक्कर लगाया और फिर वह एक स्थान पर भग्न दीवार पर चढ़ गया। कई छतों को पार करके वह उस छत के किनारों पर आ पहुँचा, जहाँ ये लोग बैठे थे। कुल छह व्यक्ति थे। दीपक जल रहा था। तीन का परिचय तो मिल गया। चौथा था गुजरात का महामन्त्री वीकणशाह, पाँचवाँ कुमार दुर्लभदेव का सम्बन्धी एक सरदार था। और छठी थी परम माहेश्वर, परम परमेश्वर गुर्जराधिपति श्री चामुण्डराय देव की सुन्दरी मुंहलगी ताम्बूलवाहिनी चम्पकबाला। गूढ़ पुरुष दीवार से चिपककर छत पर लेट गया और एकाग्र होकर उनकी बातें सुनने लगा। एक धीमा स्वर सुनाई दिया। जैन यति जिनदत्त बोल रहा था। वह कह रहा था- "महारानी बा, आप जानती हैं, मैं आप ही के राजकुल का पुरुष हूँ। मैंने जैन धर्म स्वीकार किया है। नान्दोल के सात सौ कोट्याधिप सेठिया जैन धर्म में आस्था रखते हैं। जिनके परिजन तीन लाख हैं। मेरे जैन धर्म स्वीकार करने तथा राजकुल में जैन धर्म की प्रतिष्ठा होने से नान्दोल के महाराज अनहिल्ल राज की सत्ता बहुत बढ़ गई है। नान्दोल के महाराज आपके भतीजे हैं। उनका तेज प्रताप बहुत है। वे एक प्रतापी राजसत्ता की स्थापना कर रहे हैं। मालवा उनसे शंकित रहता है। सपादलक्ष के महाराज धर्मगजदेव उन्हें बहुत मानते हैं। पाटन, कच्छ, भरुच, सौराष्ट्र और खम्भात के सब श्रावक, सेठ, नगर-सेठ हमारे पक्ष में हैं। आपकी कृपा हो तो पंचनद-पर्यन्त उत्तर में और अंगदेश-पर्यन्त पूर्व में एक अजेय राज्य स्थापित होकर भारत में जैन धर्म का उदय हो जाए। धर्मतन्त्र और राजतन्त्र, दोनों ही एक होकर चलें तो इससे उत्तम क्या है?" यति को सहारा देते हुए सरदार ने कहा, “महारानी माता, फिर एक बात भी तो है, पृथ्वी तो सब चौहानों की है। मुलतान में अजयपाल और लोहकोट में भीमपाल है। मरुभूमि के राजा घोघाबापा हैं, और सपादलक्ष में धर्मगजदेव हैं। नान्दोल में आपके अनहिल्ल राजा हैं ही। अब रह गया अर्बुदराज परमार और चौलुक्यों का पाटन, सो अर्बुदराज के युवराज कृष्णदेव इस समय नान्दोल में हैं। वे हमारे युवराज बाला प्रसाद के घनिष्ठ मित्र है। दोनों को घुड़सवारी का बेहद शौक है। दोनों एक प्राण दो शरीर हैं। अर्बुदपति धुंधुकराज भी इस समय मेदपाट में मालवराज के सान्निध्य में हैं, सो नान्दोल के मार्ग में अर्बुदेश्वर की कोई बाधा नहीं है। आप यदि यह वचन दें कि गद्दी पर बैठने के बाद महाराज दुर्लभदेव यह घोषणा करें कि वे नान्दोल के युवराज बाला प्रसाद को गोद लेकर पाटन का उत्तराधिकारी नियुक्त करते हैं तो फिर सब काम ठीक है। देखते ही देखते नान्दोल-राज महाराज दुर्लभदेव को पाटन की गद्दी पर बैठा देंगे। यहाँ पाटन के महामन्त्री बीकणशाह हमारे साथ हैं ही। सारा राजकोष तुरन्त महाराज दुर्लभदेव के हाथ में आ
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