"महाराज, यह तो राजनीति की चौसर है । अभी श्रीमन्त होल्कर सरकार के हाथ में भी तलवार है और आपके हाथ में भी तलवार है । इन फिरंगियों के लिए तो यही बहुत है । फिरंगियों ने आपका रुख पच्छिम की ओर फेर दिया है कि आप इन पहाड़ों में उलझे रहें और समूचे भारत में ये विदेशी अपनी मनमानी करते रहें।" "मैं तो इधर भी अपना काम कर रहा हूँ।" "परन्तु महाराज, आपकी तलवार को भारत का उद्धार करना है। इन फिरंगियों ने मथुरा में गोवध किया है । अंग्रेज़ सिपाही जहाँ चाहे गाय का वध कर डालते हैं। इसे महाराज बर्दाश्त कर सकते हैं ? फिर, इन फिरंगियों की नज़र देश का धन चूसने की ओर है, देश की जनता की बहाली ये चाहते नहीं। किस तरह बनारस के राजा चेतसिंह से और अवध की बेगमों से खुली लूट करके इन फिरंगियों ने लाखों रुपये लूटे हैं, यह भी तो देखिए।" "पर लूट-पाट में मराठों ने क्या कसर रखी है ? सिंधिया के दीवान सखाराम घटके ने पूना में जो निर्दय लूट-मार की थी-उसे तो अभी बहुत दिन नहीं हुए। बेचारे त्र्यम्बकराव पर्चुरे को सात लाख रुपया वसूल करने के लिए कैद किया गया—मारा-पीटा भी गया। फिर उसे पूना से निकाल दिया गया। यह हाल पेशवा के एक वजीर का किया गया। अप्पाजी बलवन्त पर सिंधिया ने दस लाख रुपये वसूल करने के लिए इतना जुल्म किया कि उसे आत्मघात करना पड़ा । तभी तो सिंधिया महाग्राह से पिण्ड छुड़ाने के लिए पेशवाओं को अंग्रेज़ों का सहारा लेना पड़ा।" "महाराज, ये युद्ध की विशेष परिस्थितियाँ हैं । फिर वे देशवासी भी तो हैं । देश की भलाई-बुराई भी तो सोचते हैं।" "तो भई, यदि बिल्लियाँ न लड़ें तो बन्दर को पंच बनने का अवसर कैसे मिले? इसलिए मैं द्विविधा में रहना ठीक नहीं समझता। जब तक अंग्रेज़ मेरे राज्य में हस्तक्षेप नहीं करते-मैं अपना कौल फेर नहीं
पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/९६
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