वह नेता और सब धर्मों के प्रति उदार था। उसकी संगठन शक्ति बड़ी अद्भुत थी, इसी के बल पर वह एक के बाद एक राज्य जय किए जा रहा था। इसी प्रबल प्रतापी सिख सरदार को अपने साथ मिलाने की दुराशा में जसवन्तराय होल्कर सहारनपुर में बैठा था। इसमें संदेह नहीं कि यदि इस समय रणजीतसिंह और होल्कर मिल जाते, तो यह उत्तर और दक्षिण ध्रुवों का एक महान् मिलन होता और भारत का नक्शा ही दूसरा हो जाता, परन्तु रणजीतसिंह में शिवाजी जैसी वीरता तो थी- पर दूरदर्शिता न थी। फिर, वह अंग्रेज़ों से संधि कर चुका था । और द्वाबे तथा दिल्ली में उनके बढ़ते हुए प्रभाव उसकी आँख के सामने थे, साथ ही वह मराठा-मण्डल का भंग भी देख चुका था, इसी से उसने होल्कर की ओर आँख नहीं उठाई। और होल्कर निराश हो तथा एक प्रकार से उसे श्राप देकर लौटा, जो आगे अक्षरशः सत्य प्रमाणित हुआ । लाहौर जाकर चौधरी ने रणजीतसिंह से मुलाक़ात की, और दर्बार में उपस्थित होकर होल्कर का पत्र दिया। पत्र पढ़ कर रणजीतसिंह क्रुद्ध हो गया। पर चौधरी ने विनयभाव और दृढ़ता के साथ निवेदन किया-“महाराज, आप इस समय भारत के सूर्य हैं, आपके जैसा प्रताप दूसरे नरपति का नहीं है। यह सेवक पंजाब का निवासी आप ही का प्रजाजन है, तथा महाराज और उनके साम्राज्य की हितकामना से यहाँ उपस्थित हुआ है। रही पत्र की बात । सो श्रीमन्त होल्कर इस समय संकटग्रस्त हैं पर आप ही की भाँति तेजस्वी और वीर हैं। आपको अपना समझ कर ही वे आपकी शरण आए थे। उनकी कटूक्ति भी आत्मीयता की घोतक है महाराज । फिर दूत अवध्य होता है। यह दास इसलिए प्रार्थना करता है कि एकान्त में उसका निवेदन सुन लिया जाय । पीछे जैसी मर्जी सरकार की हो।" "रणजीतसिंह का क्रोध ठण्डा हो गया । चौधरी के निवास आदि की उसने व्यवस्था कर दी—फिर उसने उससे एकान्त में मुलाकात की, ९७
पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/९४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।