“सरकार, रुपये की या और किसी वस्तु की इस सेवक को बिल्कुल आवश्यकता नहीं है । श्रीमन्त का काम पूरा हो । दिल्ली का तख्त श्रीमन्त के प्रभाव में आ जाय, यही मेरी प्रारजू है।" "मैं तुम्हें एक खत दूंगा, दिल्ली पहुँच कर वह तुम बादशाह को देना। यदि बादशाह से मुलाक़ात न हो सके तो वज़ीर असद खाँ को देना । इन दोनों तक तुम्हारी पहुंच न हो तो खत नष्ट कर देना। तीसरे के हाथों खत न पड़ने पाए। याद रखोगे ?" "अवश्य श्रीमन्त।" "खत अभी दो घण्टे में तुम्हें मिल जायगा-क्या तुम्हारे पास इस क़दर रुपया है कि तुम यह सफ़र आराम से कर सको ?" "है श्रीमन्त ।" "फिर भी यह रख लो।" होल्कर ने गले से पन्नों का बहुमूल्य कण्ठा उतार कर, चौधरी के हाथों में थमा दिया । चौधरी ने हाथ बाँध कर कहा-"श्रीमन्त, मैंने भाऊ साहब से आधा सेर आटा माँगा था, उन्होंने चालीस गाँवों में मेरी दुहाई फिरवा दी । यह आप का ही दिया हुआ है सरकार । अब इस क़ीमती कण्ठे को श्रीमन्त ही दास का नज़राना समझ कर रख लें-तो कृपा होगी, टेढ़ा समय है श्रीमन्त ।" होल्कर के नेत्र में एक आँसू झलक आया। पर तुरन्त ही उस ने कठोर वाणी से कहा, "कण्ठा रख लो, हुक्म-अदूली मत करो। और जल्द हम से भरतपुर में मिलो।" "जैसी आज्ञा श्रीमानों की।" चौधरी होल्कर को जुहार मुजरा कर उठ आए। और उन्होंने तुरन्त ही लाहौर की राह पकड़ी। ९४
पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/९१
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।