कचर रहे थे। उनकी बग़ल में अस्करी जान सहारनपुर की मशहूर रंडी अदा से बैठी थी । सामने उनके मुसाहिब छुट्टन मियाँ रौनक अफरोज थे। नवाब की उम्र तीस को पहुँच रही होगी। मगर चाँद अभी से गंजी हो गई थी। मूछों के बाल छीदे, डाढ़ी गुटी हुई, रंग साफ, पेट बढ़ा हुआ । ठिगने और मोटे । जरा हकला कर बातें करते थे । अस्करी की आयु कोई बीस बरस की होगी। बनाव सिंगार में चुस्त, चपल, चूड़ीदार पाजामा, और जामदानी का शर्बती दुपट्टा लापरवाही से कन्धों पर पड़ा हुआ। सटी कमख्वाब की कुर्ती । रंग निहायत साफ, बत्तीसी सुढ़ार और आँखें बड़ी-बड़ी । छुट्टन मियाँ दुबले पतले, चेचक के दाग चहरे । दुबले-पतले ढीला पाजामा और शेरवानी बदन पर मखमली टोपी सर पर। बात-बात पर जोड़-तोड़ लगाने में होशियार । नवाब ने कहा- "अमा, छुट्टन, इस जुमे रात को मेरठ चल कर नौचन्दी का हुजूम देखा जाय । भई ज़रूर विल ज़रूर चलेंगे। सफेदपोशों का जमाव, परियों का बनाव-चुनाव, जन मर्द का हुजूम । देखना शर्त है।" छुट्टन मियाँ ने तड़ाक से जवाब दिया-“वल्लाह क्या बात सूझी है । हुजूर, सातों विलायतों में नौचन्दी की धूम है, लेकिन लुत्फ तब है कि महबूबा साथ हों।" "वी अस्करी साथ चलेंगी, लाखों में," नवाब ने कनखियों से अस्करी की ओर देखकर कहा। लेकिन अस्करी जान ने अदा से दोनों कानों पर हाथ धर के कहा- "ना साहेब बन्दी ना जाने की। उस दिन दरगाह गए सो कान पकड़े, तोबा की।" नवाब ने त्योरियों में बल चढ़ा कर कहा-"अमा छुट्टन, सुना तुमने, मैंने कहा-बेवफाई तो इन लोगों की छुट्टी में पड़ी है।"
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