कामों को आसान करता जाता था। उसने आँख बन्द करके रुपया.खच किया था । तिस पर भी होल्कर और भरतपुर में अभी उसे पराजय ही का सामना करना पड़ा था । इन दिनों कम्पनी के सिपाहियों की तन: ख्वाहें कई-कई महीनों की बाकी पड़ी थीं, और वे असन्तुष्ट होते जा रहे थे। द्वाबे की सारी ही प्रजा, जहाँ-जहाँ अंग्रेजों का दखल हो गया था-वहाँ अंधेरगर्दी और अव्यवस्था का बाजार गर्म था, कर्मचारियों के व्यवहार प्रजा के साथ अच्छे न थे। सर्व साधारण में असन्तोष बढ़ता जा रहा था । सर्वत्र आर्थिक शोषण हो रहा था । रियाया की सुख-दुःख की सुनने वाला कोई न था। सरकारी कर्मचारी जो लूट-मार करते थे, उसकी दाद-फर्याद सुनने वाला कोई न था । अंग्रेज़ी शासन में उस व्यवस्था का सर्वथा अभाव था जिससे देश में कारोबार चलते हैं और व्यवसाय की वृद्धि होती है। इससे प्रजा दिन पर दिन ग़रीब होती जा रही थी। कोई हाकिम किसी की सुनता ही न था। इसका यह परिणाम यह हुआ कि इस समय अंग्रेज़ी इलाकों में लूट-मार-डाकेज़नी के अपराध बढ़ते जा रहे थे, और राज्य की ओर से उसकी कोई रोक-थाम ही नहीं होती थी। इन सब कारणों से कम्पनी के डाइरेक्टरों का आसन हिल गया था। उन्होंने वेल्जली को वापस बुला लिया था, और लार्ड कार्नवालिस को गवर्नर जनरल बनाकर भारत भेजा था। वे चाहते थे कि युद्ध बन्द करके भारत में शासन दृढ़ किया जाय, पर अकस्मात् ही उनकी मृत्यु हो गई । इन सब कारणों से होल्कर को भी साँस लेने का समय मिल गया था । जनरल. लेक होल्कर को अपने फन्दे में फाँस कर संधि करना चाह रहा था, पर होल्कर बफरे हुए शेर की भाँति अंग्रेजों से लोहा लेने पर तुला बैठा था । वह बार-बार सन्धि की शर्तों को ठुकराता जाता था। अन्त में अंग्रेजों ने विश्वासघातियों का सहारा लिया और होल्कर के अन्त करने का निश्चय किया। इस नाजुक अवसर पर चौधरी ने मराठों की बड़ी भारी सेवा की। ७५
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