"लेकिन क्या बड़े भाई।" उन्होंने खिदमतगार को पुकार कर कहा- तोड़े रथ में रख प्रा। और दो सवार साथ जा कर बड़े मियाँ को पहुंचा आएं। “लो बेटे, सम्हाल कर रखो।" उन्होंने रसीद छोटे मियाँ के हाथ में दे दी। तीनों ही आदमियों की आँखें गीली थीं। बड़ी देर सन्नाटा रहा । छोटे मियाँ ने कहा -"अब्बा हुजूर, यह गुप्ती आप चाचा जान को नज़र करने लाए थे न ।” "बेटे, तुम्हीं दे दो, मुझे तो शर्म लगती है। भला इस फरिश्ते को मैं क्या नज़र कर सकता हूँ। छोटे मियाँ ने पिता के हाथ से गुप्ती ले कर चौधरी के हाथ में थमा दी और कहा--"चचा जान, अब्बा हुजूर इसे आप ही के लिए लाए थे।" चौधरी ने हँस कर कहा-“बड़ी नायाब चीज़ है बेटे, इसे हर वक्त हाथ में रखूगा । कहा भी तो है, बूढ़े को लाठी का सहारा।" वे उसी गुप्ती पर शरीर का ज़ोर डाल कर उठ खड़े हुए। छोटे मियाँ को छाती से लगा कर प्यार किया। फिर बड़े मियाँ से बग़लगीर हो कर मिले और विदा किया। चलते-चलते पुकार कर कहा-"हज से मेरे लिए कोई उम्दा सौगात लाना बड़े भाई ।" बड़े मियाँ के खून की प्रत्येक बूंद आँसू बन रही थी। मुंह से उनके बोली न फूटी। उन्होंने सिर्फ ज़रा ठिठक कर सिर झुका दिया। और छोटे मियाँ के कंधे पर सहारा दिए रथ की ओर बढ़े। शिकार का दाव इसी समय सुरेन्द्रपाल ने पीछे से पुकारा-“यह क्या ताया जी, आप जा रहे हैं, बिना ही मेरी इजाजत लिए।" बड़े मियाँ रथ में चढ़ते-चढ़ते ठिठक गए, उन्होंने कहा-"बड़ी गलती हुई बेटा । लेकिन अब इजाजत दे दो। सूरज छिप रहा है और सर्दी की रात है, पहुँचते-पहुँचते अँधेरा हो जायगा ।" 1 ४३
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