"क्यों न रखेंगे भला । हमारे बुजुर्गों ने कहा है पुस्तकें ही आदमी की सच्ची गुरु हैं।" "हाँ, हाँ, लेकिन आदमी को दुनिया भी तो देखनी चाहिए।" "सब देखेंगे। सब देखेंगे। लाख हो--पर अभी बच्चे ही तो हैं । फिर जब तक आप हैं, इन्हें क्या फिक्र ! ये तो खेलने-खाने के दिन हैं।" "इसी से दिल कच्चा हो जाता है । सोचता हूँ जाऊँ या न जाऊँ ।" "ज़रूर जाओ बड़े भाई । मेरा भी इरादा है, जो इस बार चारपाई से उठ खड़ा हुआ तो ज़रूर चारधाम करूँगा।" "खुदा करे, आप की मुराद वर आए।" "अच्छा, अब काम की बात कहो।" "काम की बात कुछ नहीं।" बड़े मियाँ की आँखें झेंप गईं। पर चौधरी ने ताड़ लिया। उन्होंने पुछा-"क्या मालगुजारी अदा हो गई ?" "अभी कहाँ, वह रुपया जो आप के यहाँ से उस दिन गया था-- दूसरे एक ज़रूरी काम में खर्च हो गया। लेकिन चौधरी, आप इस वक्त परेशान न हों। कुछ इन्तज़ाम हो ही जायगा । अभी तो आप अपनी सेहत पर ध्यान दीजिए।" लेकिन चौधरी ने इस का कोई जवाब नहीं दिया। थोड़ी देर इधर- उधर की बातें हुई । बहुत देर तक चौधरी छोटे मियाँ से दिल्ली--ौ वहाँ के फ़िरंगियों के हाल-चाल पूछते रहे । खाने का वक्त हुआ । दोनों ने खाना खाया। दीवानखाने में पलंग लग गए और दोनों मियाँ लेट कर पाराम करने लगे। तीसरे पहर जब वे चौधरी के पलंग के पास रुखसत लेने पहुंचे, तो चौधरी ने एक कागज़ उनके हाथ में थमा दिया। बड़े मियां ने देखा- तमाम कर्जे की भर पाई की चुकता रसीद थी। बड़े मियाँ ने आश्चर्य- चकित हो कर चौधरी की ओर देख कर कहा-- "यह क्या चौधरी ?"
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