मुक्तेसर की तबाहो मराठों के जाने के बाद चौधरी ने मुक्तेसर के गढ़ के भीतर ही हवेली बनवाई थी। हवेली बहुत भारी थी। उसका विस्तार भी बहुत था । यों तो मुक्तसर भी बहुत भव्य बना था। गढ़ के चारों ओर चार सिंहद्वार थे । उत्तर द्वार से ही नया बाजार प्रारम्भ होता था -जो काफी दूर तक चला जाता था। इस बाज़ार में आजकल काफी रौनक रहती थी। पश्चिम की ओर मुक्तेसर महादेव का देवाधिष्ठान था। उसी के निकट गंगा का मन्दिर भी था। मन्दिर के पास ही पुराने ढंग का कुंआ था । जिस के सम्बन्ध में बहुत सी किम्बदत्तियां प्रसिद्ध थीं। वहीं कुछ वैरा- गियों के उजड़े हुए मठ थे। कभी इन मठों में हाथी झूमते थे—पर इस समय दस पाँच वैरागी यहाँ रहते और हरिभजन करते थे । दक्षिण की ओर नौकरों-और प्रजाजनों की बस्ती थी। जो अब काफी बढ़ गई थी। अब मुक्तसर ने एक अच्छे कस्बे का रूप धारण कर लिया था। गढ़ के पूर्वी द्वार के बाहर मराठों की सेना की छावनी थी, जहाँ के घर अब उजड़ चुके थे। और उन में अब चौधरी के कुछ सिपाही और पशु रहते थे । यहाँ पर कुछ कंजर-सांसिए और खानाबदोश कौमें बस गईं थीं जिन्हें चौधरी ने कुछ ज़मीन देकर कृषक बना दिया था। गढ़ के मध्य में चौधरी की दुमंजिली हवेली थी। हवेली का फाटक बहुत विशाल था । फाटक से घुसते ही विशाल मैदान था। जिसके चारों ओर बारकें बनी थीं। बारकों में चौधरी के हाथी, घोड़े, रथ-बहल और नित्य काम आने वाले पशु और साईस-कोचवान, घसियारे-बर- कन्दाज-सिपाही पहरेदार रहते थे। इसके बाद फिर एक भीतरी चहार दिवारी थी-जिसे एक फाटक से पार किया जाता था। चहार दिवारी के भीतर उम्दा बागीचा था, जिस में सदा फूल खिले रहते थे। चौधरी को फूलों से बड़ा प्रेम था। इस पुष्पोद्यान के बीचोंबीच ही का एक २८६
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