शतरंज का दूसरा मोहरा सन् १८०६ में पंजाब के महाराज रणजीतसिंह और अंग्रेज़ों के बीच यह सन्धि हुई थी कि सतलुज के इस पार का इलाका कम्पनी के लिए छोड़ दिया जाए। और सतलुज के दूसरी ओर रणजीतसिंह अपना साम्राज्य जितना चाहें बढ़ा लें, अंग्रेज़ बाधक नहीं होंगे। रणजीतसिंह ने ईमानदारी से इस शर्त का पालन किया था. और उसने काश्मीर, मुलतान और पेशावर के इलाकों को अपने साम्राज्य में मिला लिया था। इन बीस वर्षों में उसने बड़ी भारी शक्ति और प्रवल सेना सुगठित कर ली थी। इस समय उसकी सेना भारत की सब से अधिक संगठित और वीर सेना थी। उस का साम्राज्य विशाल, समृद्ध और उर्वर था। अब वह सिन्ध विजय के सुपने देख रहा था । परन्तु अंग्रेजों की नज़र उससे बड़ी थी, उसे सिन्ध नदी और सिन्ध प्रान्त को ईरान, रूस और अफ़ग़ानिस्तान पर अपनी नजर रखने के लिए अपने हाथ में रखना आवश्यक था । इसी प्रयत्न के सिलसिले में उसने रणजीतसिंह के पास उपहार भेजे थे। और इसके बाद बैंटिक ने उससे मिलने की प्रार्थना की थी। बाद- शाह विलियम द्वारा भेजे हुई घोडागाड़ी से प्रसन्न होकर उसने वैटिङ्क से मिलना स्वीकार कर लिया था । अब लखनऊ से फ़ारिग़ होते ही लार्ड बैंटिक सीधा पंजाब पहुँचा और रोपड़ में जा कर महाराज रणजीत- सिंह से मुलाक़ात की। यह मुलाक़ात खूब शानदार रही। इस समय दोनों ओर से भरपूर शान का दिखावा रहा । बैंटिङ्क इस समय काफी सेना माथ ले गया था। इस समय अफ़ग़ानिस्तान का शाहेशुजा लुधियाने में कैद था । इस मुलाकात में यह तय हुआ कि शाहशुजा को सामने रखकर अफ़ग़ानिस्तान पर हमला बोल दिया जाए। शाहशुजा को तीस हजार सेना दी गई, जिसे ले कर वह पहले सिंध की ओर बढ़ा, और वहाँ से वह कंधार होता हुआ काबुल पर जा धमका। पर काबुल के तत्कालीन शाह दोस्त मुहम्मद ने उससे करारी टक्कर ली, और उसे काबुल से मार २८४
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