फागन का महीना था। साल खत्म हो रहा था। दूकानदार, ठेके- दार, राज कर्मचारी अपना-अपना पावना लेने के लिए राजा रामदयाल के यहाँ दरबार लगा रहे थे-राजा रामदयाल उनके हिसाब की जाँच-पड़ताल करके आगामीर के पास भेज रहे थे। आगामीर बड़े जोड़-तोड़ और हौसले के आदमी थे-पर इस समय उनके हौसले पस्त हो रहे थे। खजाने में तो एक पाई भी न थी, फिर सब को रुपया कहाँ से चुकाया जा सकता था। कैसे और कहाँ से वह रुपया इकट्ठा करें, वे इसी उधेड़-बुन में थे । वादशाह तो सिर्फ़ खर्च करने का हुक्म देते थे। रुपया कहाँ से आए, यह सोचने का काम आगामीर का था। इस वक्त उनका मिजाज भी गर्म हो रहा था। इस अंग्रेज नाई को वे एक आँख नहीं देख सकते थे, यह नाई भी भरे दरबार बादशाह के सामने उनकी हिजो कर बैठता था। इसके अतिरिक्त निरर्थक लान-तान में वह हर माह पचास-साठ हजार रुपया मार ले जाता था। बादशाह को उसके हिसाब-किताब देखने की आवश्यकता ही नहीं रहती थी-फुर्सत भी नहीं रहती थी। इसी से आगामीर उससे जलते थे। उन्होंने क्रुद्ध हो कर कहा-“हुक्म-उदूली नहीं, इन्तजाम की बात है, रुपया तहवी ल में होगा तभी मिलेगा।" "मुझे इस बात से कुछ मतलब नहीं। मुझे रुपया अभी मिलना चाहिए।" "अभी हमें और काम हैं।" नाई फिर अपना लम्बा चिट्ठा हाथ में लटकाए बादशाह के हुजूर में पहुँचा । क्लेरेट के पीने से बादशाह का मिजाज और भी गर्मा रहा था। बार-बार अपने पाराम में खलल पड़ने से उन्होंने त्योरियों में बल डाल कर कहा-"अब यह क्या है ?" "आगामीर रुपये नहीं देता, योर मेजस्टी।" बादशाह ने गुस्सा हो कर- "इसका क्या मतलब ?" "मैंने कहा था कि हिज मेजस्टी का हुक्म है। लेकिन उसे दीवान
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