पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/२३८

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। अब्बास की दरगाह में जाकर नमाज़ पढ़तीं और पुत्र उत्पन्न होने की दुप्रा माँगती थीं। उनकी नेक ख़सलत, पतिव्रत धर्म, पवित्र विचार, दया- लुता और धर्म की लखनऊ में धूम मची थी। बादशाह-बेगम पुत्र-कामना से प्रत्येक मास के हर प्रथम जुमे को दरगाह में नमाज पढ़ने आती हैं, और वहाँ से लौटने के समय कंगालों और फकीरों को दस हज़ार रुपया खैरात बांटती हैं। यह बात प्रसिद्ध हो गई थी। उस दिन दूर-दूर के कंगले, भिखारी दरवेश फकीर दरगाह और बेगम-महल की राह के दोनों ओर खड़े होकर दान ग्रहण करते और बेगम को पुत्र होने की दुआ देते थे। जिस सुबह की बात हम पिछले अध्याय में कह पाए हैं, उसी सुबह बादशाह-वेगम की सवारी दरगाह आ रही थी। सबसे आगे जंगी विला- यती बाजा बज रहा था। इसके बाद गंगा-जमनी काम की पालकी में बादशाह बेगम वैठी थीं। पालकी पर जरवप्त और जरदोजी काम केपर्दे पड़े हुए थे तथा पाल की पर रत्न-जड़ित छत्र था। यह छत्र बादशाह- बेगम के अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं धारण कर सकता था। यह पालकी असाधारण दोतल्ला थी। जर्क वर्क पोशाकें पहने बीस कहार पालकी को कन्धों पर उठाए हुए थे। पालकी के पीछे स्त्री सेना की पचास स्त्रियां सैनिक वर्दी डाटे, कन्धे पर धनुष वाण और हाथ में नंगी तलवार लिए चल रही थीं। इन स्त्रियों के पीछे आसा वर और चोपदार निशान लिए.. चल रहे थे । सब के पीछे सिर से पैर तक सुनहरी पोशाक से लदा हुआ सोने के हौदे में रत्न-जड़ित मुकुट रखे बेगम महल का प्रधान खोजा अकड़ कर बैठा हुआ था। बादशाह-बेगम की सवारी धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी, पर बाज़ार में उदासी और सन्नाटा था। लोगों के कारोबार बन्द थे। सरकारी प्राद- मियों के अत्याचारों और लूट-खसोट से तंग आकर लोगों ने हड़ताल की हुई थी पर इन बातों की ओर किसका ध्यान था। दरगाह में जाकर बेगम ने नमाज़ पढ़ी, दुवा मांगी। और बड़ी देर तक बैठी रहीं। बदनसीब बेगम नहीं जानती थी--कि पुत्र की प्राप्ति 1 २४२