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शरीफजादे गर्मी की सुबह । अभी सूरज उठा नहीं-हवा ठण्डी चल रही थी। लोग रात भर गर्मी के मारे करवटें बदलते रहे और तड़पते रहे । उनकी अाँख में नींद का खुमार भरा था। मगर बिस्तर छोड़ कर उठ बैठे थे । कोई हुक्का भरने की फिक्र में, और कोई हाथ मुंह धोने की जुगत में । कोई कपड़े पहन रहा था । परन्तु कुछ लोग इस वक्त की ठंडी हवाके झोंकों में मीठी नींद के मजे ले रहे थे। मीर आग़ा अपने छोटे से कमरे के आगे चबूतरे पर मोढ़े पर बैठे हुक्का पी रहे थे। अभी एक दो क़श लिए होंगे कि पड़ोस के मिर्जा डेढखुम्मा हुक्का--खूब सुलगा हुअा हाथ में लिए बराबर मोढ़े आ बैठे। मीर साहब ने कहा--"मिर्जा साहब, वल्लाह प्राप का हुक्का तो इस वक्त कयामत कर रहा है।" मिर्जा ने हुक्का मीर साहेब के प्रागे रख कर कहा--"लीजिए, शौक कीजिए । मुलाहिजा फर्माइए।" "खुदा जाने करीम खां किस तरह हुक्का भरता है। पहर भर हो गया, सुलगने का नाम नहीं।" "उसे मुझे इनायत कीजिए।" करीमा से बदनामी चुपचाप बर्दाश्त नहीं हुई । उसने कहा-"हुजूर, भारी तवा है, सुलगते-सुलगते ही सुलगेगा । लाइए फूंक दं।" उसने चिलम की ओर हाथ बढ़ाया । मिर्जा ने हुक्का अपनी ओर खींचते हुए कहा- "अमा क्या हुक्के को गारत करोगे, ठहरो मैं दुरुस्त किए लेता हूँ।" मीर साहब ने मिर्जा के हुक्के पर दखल कर के मुस्कुराते हुए कहा- "भई मिर्जा, वाकई पाप हुक्के की नब्ज पहचानते हैं । बस मसीहा हैं आप हुक्क के । लीजिए, पान शौक फर्माइए।" उन्होंने पानदान मिर्जा के आगे सरका दिया। मिर्जा साहब ने दो गिलौरियां मुंह में ढूंसते हुए कहा--"कहिए, साहब e २३७