दरगाह पर जम रही थी। शागिर्द लोग और दूर-दूर क कव्वाल पाए थे । दिल्ली और आस-पास के अकीदे वाले लोग हाजिर थे। बहुत लोग फातिहा पढ़ रहे थे। बहुत लोग मज़ार के चारों ओर घेरा डालकर बैठे कुरान की प्रायतें- और दूसरे पवित्र पाठों का मन्द स्वर से उच्चारण कर रहे थे। दो स्त्रियाँ बुर्का प्रोढ़े हुए डोली से उतर कर धीरे-धीरे मज़ार की तरफ़ को चलीं । दरगाह की ड्योढ़ियों पर पहुँच कर दोनों ने बुर्का उठा दिया । उनमें एक अधेड़ उम्र की मोटी-ताज़ी औरत थी। दूसरी असा- धारा रूप लावण्यवती बाला थी। अभी उसकी आयु चौदह बरस ही की होगी। वह फिरोज़ी रंग की ओढ़नी और ज़री के काम का सुथना पहने थी। उसकी बड़ी-बड़ी कटोरी-सी आँखें, मोती-सा रंग और ताज़ा सेब के समान चेहरा ऐसा लुभावना और अद्भुत था कि उसे देखकर उस पर से अाँखें वापस खींच लेना असम्भव था । दोनों ने दरगाह की ड्योढ़ियों पर जाकर घुटने टेक दिए । फूल और मिठाई चढ़ाई । मुजादिर ने दो फूल मज़ार से उठा कर बालिका को दिए । बालिका ने उन्हें आँखों से लगाया । वृद्धा ने कहा-या हजरत, मेरी बेटी को फ़रहत बख्शना । दोनों स्त्रियाँ वापस लौट चलीं। उन्हें उस बात का कुछ भी भान न कि कोई उन्हें छिपी हुई नज़रों से देख रहा है । परन्तु दो आदमी चुपचाप उन्हें देख रहे थे। एक की आयु पच्चीस वर्ष के लगभग थी। रंग गोरा, बड़े-बड़े नेत्र विशाल छाती और नोकदार नाक । स्पष्ट था कि कोई बड़ा आदमी छद्म वेश में है। इस व्यक्ति के शरीर पर साधारण वस्त्र थे । और वह खूब चौकन्ना होकर दरगाह में घूम रहा था । उसके पीछे उससे सटा हुआ दूसरा पुरुप था। यह पुरुष प्रौढ़ और कद्दावर था । वह परछाई की भाँति उसके साथ था। और उसकी प्रत्येक बात अदब से सुनता और जवाब देता था। आगे वाले पुरुष ने कहा- था- २२३
पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/२१९
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