और फारसी की शिक्षा के लिए जगह-जगह मकतब और मदरसे हैं। जहाँ लाखों हिंदू और मुसलमान बालक शिक्षा पा रहे हैं। फिर छोटे से छोटे गाँव में भी पाठशालाएँ हैं, जिनका संचालन पंचायतों द्वारा होता है। आपको यह जानकर शायद कदाचित आश्चर्य हो कि इस समय भी अकेले बंगाल में ४० हज़ार देशी पाठशालाएँ हैं। और जहाँ तक मैं जानता हूं प्रत्येक हिंदू गाँव में आमतौर पर सब बच्चे लिखना-पढ़ना और हिसाब करना जानते हैं। मैं तो यहाँ तक कहने का साहस कर सकता हूँ कि शिक्षा की दृष्टि से संसार के किसी भी अन्य देश में किसानों की अवस्था इतनी ऊँची नहीं है, जितनी भारत के अनेक भागों में । आपने प्रसिद्ध मिश्नरी डा-वेल का नाम तो सुना होगा कि जो मद्रास में पादरी रह चुके हैं, अब उन्होंने इंग्लिस्तान जाकर भारतीय प्रणाली के अनुसार शिक्षा देना प्रारंभ किया है। "लेकिन मैं तो यह देखता हूँ कि इस हिन्दुस्तान में करोड़ों नन्हें-नन्हें बच्चे, जिन्हें पाठशालाओं में शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए, मां बाप का पेट भरने के लिए उनके साथ मेहनत-मजदूरी करते हैं।" "लेकिन यह सब हमारी ही करतूत से । मुझे कहते हुए दुःख होता है कि सारा हिन्दुस्तान बड़ी तेज़ी से निर्धन होता जा रहा है। खासकर जब से यहाँ इंग्लिस्तान के बने कपड़ों का प्रचार किया गया है । यहाँ के कारीगरों की जीविका-निर्वाह के साधन खत्म हो गए हैं। देश का धन पुराने देशी दर्बारों और देशी कर्मचारियों के हाथों से निकल कर हमारे हाथ में चला आया है, और हम उस धन को भारत में खर्च न करके इंग्लिस्तान भेज रहे हैं, सरकारी लगान जिस कड़ाई से वसूल किया जाता है उससे भी प्रजा को कष्ट होता है । इस कारण नीच और मध्यम श्रेणी के लोग मजबूर हो गए हैं कि उनके बच्चों के कोमल अंग थोड़ी-बहुत मेहनत कर सकने के योग्य हो जाएँ तो ,माता-पिता उन्हें जिन्दगी की आवश्यकता के लिए मेहनत मजदूरी में धकेल देते हैं । इसी से देश की पुरानी शिक्षा संस्थाएं कम होती जा रही हैं। खासकर इसलिए भी कि २१५
पृष्ठ:सोना और खून भाग 1.djvu/२११
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।